गीता रहस्य -तिलक पृ. 81

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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चौथा प्रकरण

“अधिकांश लोगों का अधिक सुख’’ वाले आधिभौतिक पंथ में सब से भारी दोष यह है कि उसमें कर्ता की बुद्धि या भाव का कुछ भी विचार नहीं किया जाता। मिल साहब के लेख ही से यह स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि, उस (मिल) की युक्ति को सच मान कर भी, इस तत्त्व का उपयोग सब स्थानों पर एक समान नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह केवल बाह्य फल के अनुसार नीति का निर्णय करता है, अर्थात् उसका उपयोग किसी विशेष मर्यादा के भीतर ही किया जा सकता है; या यों कहिये कि वह एकदेशीय है। इसके सिवा इस मत पर एक और भी आक्षेप किया जा सकता है कि, “स्वार्थ की अपेक्षा परार्थ क्यों और कैसे श्रेष्ठ है? इस प्रश्न की कुछ भी उपपत्ति न बतलाकर ये लोग इस तत्त्व को सच मान लिया करते हैं। फल यह होता है कि उच्च स्वार्थ की बेरोक वृद्धि होने लगती है। यदि स्वार्थ और परार्थ दोनों बातें मनुष्य के जन्म से ही रहती हैं, अर्थात स्वाभाविक है; तो प्रश्‍न होता है कि मैं स्वार्थ की अपेक्षा लोगों के सुख को अधिक महत्त्वपूर्ण क्यों समझूं?

यह उत्‍तर तो संतोषदायक हो ही नहीं सकता, कि तुम अधिकांश लोगों के अधिक सुख को देख कर ऐसा करो; क्योंकि मूल प्रश्‍न ही यह है कि मैं अधिकांश लोगों के अधिक सुख के लिये यत्न क्यों करूं? यह बात सच है कि अन्य लोगों के हित में अपना ही हित सम्मिलित रहता है इसलिये यह प्रश्न हमेशा नहीं उठता। परन्तु आधिभौतिक पंथ के उक्त तीसरे वर्ग की अपेक्षा इस अंतिम (चौथे) वर्ग में यही विशेषता है कि, इस आधिभौतिक पंथ के लोग यह मानते हैं कि, जब स्वार्थ और परार्थ में विरोध खड़ा हो जाय तब उच्च स्वार्थ का त्याग करके परार्थ- साधन ही के लिये यत्न करना चाहिये।इस पंथ की उक्त विशेषता की कुछ भी उपपत्ति नहीं दी गई है। उसने छोटे छोटे कीड़ों से लेकर मनुष्य तक सब सजीव प्राणियों के व्यवहारों का खूब निरीक्षण किया। और अंत में, उसने यह सिद्धांत निकाला कि, जबकि छोटे छोटे कीड़ों से लेकर मनुष्यों तक में यही गुण अधिकाधिक बढ़ता और प्रगट होता चला आ रहा है कि वे स्वयं अपने ही समान अपनी संतानों और जातियों की रक्षा करते हैं और किसी को दुःख न देते हुए अपने बंधुओं की यथासंभव सहायता करते हैं, तब हम कह सकते हैं कि सजीव सृष्टि के आचरण का यही- परस्पर-सहाय का गुण- प्रधान नियम है।

सजीव सृष्टि मे यह नियम, पहले पहल सन्तानोत्पादन और संतान के लालन-पालन के बारे में देख पड़ता है ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म कीड़ों की सृष्टि को देखने से, कि जिनमें स्त्री-पुरुष का कुछ भेद नहीं है, ज्ञात होगा कि एक कीड़े की देह बढ़ते बढ़ते फूट जाती है और उससे दो कीड़े बन जाते हैं। अर्थात् यही[1] कहना पड़ेगा कि सन्तान के लिये- दूसरे के लिये- यह कीड़ा अपने शरीर को भी त्याग देता है। इसी तरह सजीव सृष्टि में इस कीड़े से ऊपर के दर्जे के स्त्री-पुरुषात्मक प्राणी भी अपनी अपनी सन्तान के पालन-पोषण के लिये स्वार्थ त्याग करने में आनन्दित हुआ करते हैं। यही गुण बढ़ते बढ़ते मनुष्य जाति के असभ्य और जंगली समाज में भी इस रूप में पाया जाता है कि वे लोग न केवल अपनी सन्तानों की रक्षा करने में, किंतु अपने जाति-भाइयों की सहायता करने में भी सुख से प्रवृत हो जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. र. 12

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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