गीता रहस्य -तिलक पृ. 60

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तीसरा प्रकरण

“अरे! भुजा उठाकर मैं चिल्ला रहा हूं; परन्तु कोई भी नहीं सुनता! धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है इसलिये इस प्रकार के धर्म का आचरण तुम क्यों नहीं करते हो’’ अब इससे पाठकों के ध्यान में यह बात अच्छी तरह जम जायगी कि महाभारत को जिस धर्म-दृष्टि से पांचवां वेद अथवा 'धर्म संहिता' मानते हैं, उस ‘धर्म संहिता’ शब्द के ‘धर्म’ शब्द का मुख्य अर्थ क्या है? यही कारण है कि पूर्व मीमांसा और उत्‍तरमीमांसा दोनों पारलौकिक अर्थ के प्रतिपादक ग्रंथों के साथ ही, धर्म ग्रंथ के नाते से, “नारायणं नमस्कृत्य’’ इन प्रतीक शब्दो के द्वारा, महाभारत का भी समावेश ब्रह्मयज्ञ के नित्य पाठ में कर दिया गया है। धर्म-अधर्म के उपर्युक्त निरूपण को सुन कर कोई यह प्रश्न करे कि यदि तुम्हें ‘समाज-धारण’ और दूसरे प्रकरण के सत्यानृतविवेक में कथित ‘सर्वभूतहित’ ये दोनो तत्त्व मान्य हैं तो तुम्हारी दृष्टि में और आधिभौतिक दृष्टि में भेद ही क्या है?

क्योंकि ये दोनो तत्त्व बाहातः प्रत्यक्ष दिखने वाले और आधि- भौतिक ही है। इस प्रश्न का विस्तृत विचार अगले प्रकरणों में किया गया है। यहाँ इतना ही कहना बस है कि, यद्यपि हमको यह तत्त्व मान्य है कि समाज-धारण ही धर्म का मुख्य बाहय उपयोग है, तथापि हमारे मत की विशेषता यह है कि वैदिक अथवा अन्य सब धर्मों का जो परम उद्देश्य आत्म-कल्याण या मोक्ष है, उस पर भी हमारी दृष्टि बनी है। समाज-धारण को लीजिये, चाहे सर्वभूतहित ही को; यदि ये बाहोयपयोगी तत्त्व हमारे आत्म-कल्याण के मार्ग में बाधा डालें तो हमें इनकी जरूरत नहीं। हमारे आयुर्वेद-ग्रंथ यदि यह प्रतिपादन करते है कि वैद्यकशास्त्र भी शरीर रक्षा के द्वारा मोक्ष प्राप्ति का साधन होने के कारण संग्रहणीय है; तो यह कदापि संभव नहीं है कि जिस शास्त्र में इस महत्त्व के विषय का विचार किया गया है कि सांसारिक व्यवहार किस प्रकार करना चाहिये, उस कर्म योगशास्त्र को हमारे शास्त्रकार आध्यात्मिक मोक्ष ज्ञान से अलग बतलावें। इसलिये हम समझते हैं कि जो कर्म, हमारे मोक्ष अथवा हमारी आध्यात्मिक उन्नति के अनुकूल हो, वही पुण्य है, वही धर्म है और वहीं शुभकर्म है; और जो कर्म उसके प्रतिकूल हो वही पाप, अधर्म अथवा अशुभ है।

यही कारण है कि हम ‘कर्तव्य-अकर्तव्य’ कार्य-अकार्य’ शब्दों के बदले ‘धर्म’ और ‘अधर्म’ शब्दों का ही यद्यपि वे दो अर्थ के, अतएव कुछ संदिग्ध हों तो भी अधिक उपयोग करते हैं। यद्यपि बाहय सृष्टि के व्यावहारिक कर्मों अथवा व्यापारों का विचार करना ही प्रधान विषय हो, तो भी उक्त कर्मों का बाहय परिणाम के विचार के साथ ही साथ यह विचार भी हम लोग हमेशा किया करते हैं कि ये व्यापार हमारे आत्मा के कल्याण के अनुकूल है या प्रतिकूल। यदि आधिभौतिकवादी से कोई यह प्रश्न करे कि ‘मैं अपना हित छोड़कर लोगों का हित क्यों करूं’ तो वह इसके सिवा और क्या समाधनकारक उत्‍तर दे सकता है कि “यह तो सामान्यतः मनुष्य-स्वभाव ही है।’’ हमारे शास्त्रकारों की दृष्टि इसके परे पहुची हुई हैं; और उस व्यापक आध्यात्मिक दृष्टि ही से महाभारत में कर्म योगशास्त्र का विचार किया गया है; एवं श्रीमद्भागवद्वीता में वेदांत का निरूपण भी इतने ही के लिये किया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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