गीता रहस्य -तिलक पृ. 390

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
बारहवां प्रकरण

गीता का यह उपदेश अथवा उद्देश भी नहीं है कि निर्वैर होने से निष्‍पतिकार भी होना ही चाहिये। जिसे लोकसंग्रह की परवा ही नहीं है उसे जगत में दुष्‍टों की प्रवलता फैले तो और न फैले तो करना ही क्‍या है; उसकी जान रहे चाहें चली जाय, सब एक ही सा है। किन्‍तु पूर्णावस्‍था में पहुँचे हुए कर्मयोगी प्राणिमात्र में आत्‍मा की एकता को पहचान कर यद्यपि सभी के साथ निर्वैरता का व्यवहार किया करें, तथापि अनासक्‍त-बुद्धि से पात्रता-अपात्रता का सार-असार-विचार करके स्‍वधर्मानुसार प्राप्‍त हुए कर्म करने में वे ज़रा भी भूल नहीं करते; और कर्मयोग कहता है कि इस रीति से किेये हुए कर्म कर्त्‍ता की साम्‍यबुद्धि में कुछ भी न्‍यनता नहीं आने देते। गीताधर्म प्रतिपादित कर्मयोग के इस तत्‍व को मान लेने पर कुलाभिमान और देशाभिमान आदि कर्त्‍तव्‍य धर्मों को भी कर्मयोगशास्‍त्र के अनुसार योग्‍य उपपत्ति लगाई जा सकती है। यद्यपि यह अन्तिम सिद्धान्‍त है कि समग्र मानव जाति का-प्राणिमात्र का-जिससे हित होता हो वही धर्म है, तथापि परमावधि की इस स्थिति को प्राप्‍त करने के लिये कुलाभिमान, धर्माभिमान, और देशाभिमान आदि चढ़ती हुई सीढि़यों की आवश्‍यकता तो कभी भी नष्‍ट होने की नहीं। निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति के लिये जिस प्रकार सगुणोपासना आवश्‍यक है उसी प्रकार वसुधैव कुटुम्‍बकम्’ की ऐसी बुद्धि पाने के लिये कुलाभिमान, जात्‍याभिमान, धर्माभिमान और देशाभिमान आदि की आवश्‍कता है; एवं समाज की प्रत्‍येक पीढ़ी इसी ज़ीने से ऊपर चढ़ती है, इस कारण इसी ज़ीने को सदैव ही स्थिर रखना पड़ता है।
ऐसे ही अपने चहुँ ओर के लोग अथवा राष्‍ट्र जब नीचे की सीढ़ी पर हो, तब यदि कोर्इ एक-आध मनुष्‍य अथवा राष्‍ट्र चाहे कि मैं अकेला ही ऊपर की सीढ़ी पर रहूँगा, तो उसकी भी सिद्धि नहीं हो सकती। क्‍योंकि ऊपर कहा ही जा चुका है परस्‍पर व्‍यवहार में ‘’जैसे‘’ न्‍याय से ऊपर की श्रेणीवालों को नीचे-नीचे की श्रेणीवाले लोगों के अन्‍यान्‍य का प्रतिकार करना विशेष प्रसंग पर आवश्‍यक रहता है। इसमें कोई शंका नहीं, कि सुधरते सुधरते जगत् के सभी मनुष्‍यों की स्थिति एक दिन ऐसी ज़रूर हो जावेगी कि वे प्राणिमात्र में आत्‍मा की एकता को पहचानने लगें; अन्‍तत: मनुष्‍य मात्र की ऐसी स्थिति प्राप्‍त कर लेने की आशा रखना कुछ अनुचित भी नही है। परन्‍तु आत्‍मोचित की परमावधि की यह स्थिति जब तक सब को प्राप्‍त हो नही गई है, तब तक अन्‍यान्‍य राष्‍ट्रों अथवा समाजों की स्थिति पर ध्‍यान दे कर साधु पुरुष देशाभिमान आदि धर्मों का ही ऐसा उपदेश देते रहें कि जो अपने–अपने समाजों को उन-उन समयों में श्रेयस्‍कर ही इसके अतिरिक्‍त, इस दूसरी बात पर भी ध्‍यान देना चाहिये कि मञ्जिल द मञ्जिल तैयारी करके इमारत वन जाने पर जिस प्रकार नीचे के हिस्‍से निकाल डाले नहीं जा सकते; अथवा जिस प्रकार तलवार हाथ में आ जाने से कुदाली की, या सूर्य होने से अग्नि की, आवश्‍यकता बनी ही रहती है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः