गीता रहस्य -तिलक पृ. 389

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
बारहवां प्रकरण

सदा ध्‍यान रहे कि जो पुरुष अपने बुरे कामों से पराई गर्दनें काटने पर उतारू हो गया, उसे यह कहने का कोई भी नैतिक हक नहीं रह जाता कि और लोग मेरे साथ साधुता का बर्ताव करें। धर्मशास्‍त्र में स्‍पष्‍ट आज्ञा है[1] कि इस प्रकार जब साधु पुरुषों को कोई असाधु काम लाचारी से करना पड़े, तो उसकी जिम्‍मेदारी शुद्ध-बुद्धिवाले साधु पुरुषों की नहीं रहती; किन्‍तु इसका जिम्‍मेदार वही दुष्‍ट पुरुष हो जाता है कि जिसके दुष्‍ट कर्मों का यह नतीज़ा है। स्‍वयं बुद्ध ने देवदत्‍त का जो शासन किया, उसकी उपपत्ति बौद्ध ग्रन्‍थकारों ने भी इसी तत्त्व पर लगाई है[2]। जड़ सृष्टि के व्‍यवहार में ये आघात-प्रतिघातरूपी कर्म नित्‍य और बिलकुल चुमाचुम ठीक होते हैं परन्‍तु मनुष्‍य के व्‍यवहार में ये आघात प्रतिघात रूपी कर्म नित्‍य और बिलकुल चुमाचुम ठीक होते हैं। परन्‍तु मनुष्‍य के व्‍यवहार उसके इच्‍छाधीन हैं; और ऊपर जिसे त्रिलोक्‍य चिन्‍तामणि की मात्रा का उल्‍लेख किया है, उसके दुष्‍टों पर प्रयोग करने का निश्चित विचार जिसे धर्मज्ञान से होता है, वह धर्मज्ञान वह अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म है; इस कारण विशेष अवसर पर बड़े-बडे लोग भी सचमुच इस दुविधा में पड़ जाते हैं कि, हम जो किया चाहते हैं वह योग्‍य है या अयोग्‍य, अथवा धर्म्‍य या अधर्म्‍य-किंकर्म किमकर्मेति कवयोऽप्‍यत्र मोहिता:[3]

एसे अवसर पर कोरे विद्वानों की, अथवा सदैव थोड़े-बहुत स्‍वार्थ के पंजे में फँसे हुए पुरुषों की पण्डिताई पर, या केवल अपने सार-असार-विचार के भरोसे पर कोई काम न कर बैठे; बल्कि पूर्ण अवस्‍था में पहुँचे हुए परमावधि के साधुपुरुष की शुद्धबुद्धि के ही शरण मे जा कर उसी गुरु के निर्णय को प्रमाण माने। क्‍योंकि निरा तार्किक पण्डित जितना अधिक होगा, दलीलें भी उतनी ही अधिक निकलेंगी; इसी कारण बिना शुद्धबुद्धि के कोरे पाण्डित्‍य से ऐसे बिकट प्रश्‍नों का कभी सच्‍चा और समाधानकारक निर्णय नहीं हो पाता; अतएव उसको शुद्ध और निष्‍काम बुद्धिवाला गुरु ही करना चाहिये। जो शास्‍त्रकार अत्‍यन्‍त सर्वमान्‍य हो चुके हैं, उनकी बुद्धि इस प्रकार की शुद्ध रहती है, और यही कारण है जो भगवान ने अर्जुन से कहा है-‘’तस्माच्‍छास्‍त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्‍यवस्थितौ ‘’[4]– कार्य अकार्य का निर्णय करने में तुझे शास्‍त्र को प्रमाण मानना चाहिये। तथापि यह न भूल जाना चाहिये कि कालमान के अनुसार श्‍वेतकेतु जैसे आगे के साधु पुरुषों को इन शास्‍त्रों में भी फ़र्क करने का अधिकार प्राप्‍त होता रहता है। निर्वैर और शान्‍त साधु पुरुषों के आचरण के सम्‍बन्‍ध में लोगों की आज कल जो गै़र समझ देखी जाती है, उसका कारण यह है कि कर्मयोगमार्ग प्राय: लुप्‍त हो गया है, और सारे संसार ही को त्‍याज्‍य माननेवाले संन्‍यासमार्ग का आज कल चारों ओर दौरदौरा हो गया है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनु. 8. 19 और 351
  2. देखो मिलिन्‍द्प्र. 4. 1. 30-34
  3. गी. 4. 16
  4. गी. 16. 24

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः