गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
उस प्रणाली से कई बार योग के सच्चे सिद्धान्तों के सम्बन्ध में जैसा भ्रम पड़ जाता है, उसका वर्णन हम पांचवे प्रकरण में कर आये हैं। गीता के टीकाकरों की इस भ्रामक पद्धति को छोड़ देने से सहज ही ज्ञात हो जाता है कि भागवतधर्मी कर्मयोगी ‘निर्वैर’ शब्द का क्या अर्थ करते हैं। क्योंकि ऐसे अवसर पर दुष्ट के साथ कर्मयोगी गृहस्थ को जैसा बर्ताव करना चाहिये, उसके विषय में परम भगवद्भक्त प्रह्लाद ने ही कहा है कि ‘’ तस्मान्नित्यं क्षमा तात! पण्डितैरपवादिता’’[1]-हे तात! इसी हेतु से चतुर पुरुषो नें क्षमा के लिये सदा अपवाद बतलाया है जो कर्म हमें दु:खदायी हो, वही कर्म करके दूसरों को दु:ख न देने का, आत्मौपम्य-दृष्टि का सामान्य धर्म है तो ठीक; परन्तु महाभारत में निर्णय किया है कि जिस समाज में आत्मौपम्य-दृष्टिवाले सामान्य धर्म की जोड़ के इस दूसरे धर्म के-कि हमें भी दूसरे लोग दु:ख न दें-पालनेवाले न हों; उस समाज में केवल एक पुरुष ही यदि इस धर्म को पालेगा तो कोई लाभ न होगा। यह समता शब्द ही दो व्यक्तियों से सम्ब्द्ध अर्थात् सापेक्ष है। अतएव आततायी पुरुष को मार डालने से जैसे अहिंसा धर्म में बट्टा नही लगता, वैसे ही दुष्टों का उचित शासन कर देने से साधुओं की आत्मौपम्य बुद्धि या निश्शत्रुता में भी कुछ न्यूनता नहीं होती। बल्कि दुष्टों के अन्याय का प्रतिकार कर दूसरों को बचा लेने का श्रेय अवश्य मिल जाता है। जिस परमेश्वर की अपेक्षा किसी की भी बुद्धि अधिक सम नहीं है, जब वह पमेश्वर भी साधुओं की रक्षा और दुष्टों का विनाश करने के लिये समय-सयम पर अवतार ले कर लोकसंग्रह किया करता है[2] तब और पुरुषों की बात ही क्या है? यह कहना भ्रमपूर्ण है कि ’’वसुधैव कुटुम्बकम्‘’.रूपी बुद्धि हो जाने से अथवा फलाशा छोड़ देने से पात्रता-अपात्रता का अथवा योग्यता-अयोग्यता का भेद भी मिट जाना चाहिये। गीता का सिद्धान्त यह है कि फल की आशा में ममत्वबुद्धि प्रधान होती है और उसे छोड़े बिना पाप-पुण्य से छुटकारा नहीं मिलता। किन्तु यदि किसी सिद्ध पुरुष को अपना स्वार्थ साधने की आवश्यकता न हो, तथापि यदि वह किसी अयोग्य आदमी को कोई ऐसी वस्तु ले लेने दे कि जो उसके योग्य नहीं, तो उस सिद्ध पुरुष को अयोग्य आदमियों की सहायता करने का, तथा योग्य साधुओं एवं समाज की भी हानि करने का पाप लगे बिना न रहेगा। कुबेर से टक्क्र लेनेवाला करोड़पति साहूकार यदि बाज़ार में शाक-सब्जी लेने जावे, तो जिस प्रकार वह धनियें की गड्डी की कीमत लाख रूपये नहीं दे देता, उसी प्रकार पूर्ण साम्यावस्था में पहुँचा हुआ पुरुष किसी भी कार्य का योग्य तारतम्य भूल नहीं जाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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