गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
बारहवां प्रकरण
तब उनमें पितामह और गुरु जैसे पूज्य मनुष्यों पर दृष्टि पड़ते ही उसके ध्यान में यह बात आ गई कि दुर्योधन की दुष्टता का प्रतिकार करने के लिये उन गुरुजनों को शस्त्रों से मारने का दुष्कर कर्म भी मुझे करना पड़ेगा कि जो केवल कर्म में ही नहीं, प्रत्युत अर्थ में भी आसक्त हो गये हैं[1]; और इसी से वह कहने लगा कि यद्यपि दुर्योधन दुष्ट हो गया है, तथापि ‘’न पापे प्रतिपाप: स्यात्’’ वाले न्याय से मुझे भी उसके साथ दुष्ट न हो जाना चाहिये, ‘’यदि वे मेरी जान भी ले लें तो भी[2] मेरा ‘निवैंर’ अन्त:करण से चुपचाप बैठ रहना ही उचित है।‘’ अर्जुन की इसी शंका को दूर बहा देने के लिये गीताशास्त्र की प्रवृत्ति हुई है; और यही कारण है कि गीता में इस विषय का जैसा खुलासा किया गया है वैसा और किसी भी धर्मग्रन्थ में नहीं पाया जाता। उदाहरणार्थ, बौद्ध और क्रिश्चियन धर्म निवरैंत्व के तत्त्व को वैदिक धर्म के समान ही स्वीकार तो करते हैं; परन्तु इनके धर्मग्रन्थों में स्पष्टतया यह बात कहीं भी नहीं बतलाई है कि ( लोकसंग्रह की अथवा आत्मसंरक्षा की भी परवा न करने वाले ) सर्व-कर्मत्यागी संन्यासी पुरुष का व्यवहार, और ( बुद्धि के अनासक्त एवं निवैंर हो जाने पर भी उसी अनासक्त और निवैंर बुद्धि से सारे बर्ताव करने वाले ) कर्मयोगी का व्यवहार-ये दोनों सर्वोश में एक नहीं हो सकते। इसके विपरीत पश्चिमी नीतिशास्त्रवेत्ताओं के आगे यह बेढव पहेली खड़ी है कि ईसा ने जो निवैंरत्व का उपदेश किया है उसका जगत् की नीति से समुचित मेल कैसे मिलावें[3] और निट्शे नामक आधुनिक जर्मन पण्डित ने अपने ग्रन्थों में यह मत डांट के साथ लिखा है कि निवैंरत्व का यह धर्मतत्त्व गुलामगिरी का और घातक है, एवं इसी को श्रेष्ठ माननेवाले ईसाई धर्म ने यूरोपखण्ड को नामर्द कर डाला है। परन्तु हमारे धर्मग्रन्थों को देखने से ज्ञात होता है कि न केवल गीता को प्रत्युत मनु को भी यह बात पूर्णतया अवगत और सम्मत थी कि संन्यास और कर्मयोग, दोनों धर्ममार्गों में,, इस विषय में भेद करना चाहिये। क्योंकि मनु ने यह नियम ‘’ क्रुध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येत्’’-ख़फ़ा होने वाले पर लौटा कर गुस्सा न करे[4], न गृहस्थधर्म में बतलाया है और न राजधर्म में; बतलाया है केवल यतिधर्म में ही। परन्तु आज कल के टीकाकार इस बात पर ध्यान नहीं देते कि इनमें कौन वचन किसी मार्ग का है अथवा उसका कहाँ उपयोग करना चाहिये; उन लोगों ने संन्यास और कर्ममार्ग दोनों के परस्पर-विरोधी सिद्धान्तों को गड्ढमगड्ढा कर डालने की जो प्रणाली डाल दी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी. 2. 5
- ↑ गी. 1. 46
- ↑ See Paulsen’s System of Ethic, Book III. Chap. X. (Eng. Trans. ) and Nietzsohe’s Anti- Ohrist.
- ↑ मनु. 6. 48
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