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1. कामोपभोग को ही पुरुषार्थ मान कर अहंकार से, आसुरी बुद्धि से, दम्भ से, या लोभ से केवल आत्मसुख के लिये कर्म करना (गी. 16.16 )-आसुर अथवा राक्षसी मार्ग है।
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अधम
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नरक
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इस प्रकार परमेश्वर के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान न होने पर भी, कि प्राणिमात्र में एक ही आत्मा है, वेदों की आज्ञा या शास्त्रों की आज्ञा के अनुसार श्रद्धा और नीति से अपने-अपने काम्य-कर्म करना (गी. 2. 41-44, और 9-20 )- केवल कर्म, त्रयी धर्म, अथवा मीमांसक मार्ग है।
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मध्यम (मीमांसकों के मत में उत्तम)
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स्वर्ग (मीमांसकों के मत में मोक्ष)
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1.
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शास्त्रोक्त निष्काम कर्मों से परमेश्वर का ज्ञान हो जाने पर अन्त में वैराग्य से समस्त कर्म छोड़, केवल ज्ञान में ही रहना ( गी. 5.2 गीता )- केवल ज्ञान, सांख्य, अथवा स्मार्त मार्ग हैं।
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उत्तम
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मोक्ष
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1.
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पहले चित्त की शुद्धि के निमित्त, और उससे परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर फिर केवल लोकसंग्रहार्थ, मरण-पर्यन्त भगवान के समान निष्काम–कर्म करते रहना (गी. 5.2 )- ज्ञान-कर्म-समुच्चय, कर्मयोग का भागवत मार्ग है।
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सर्वोत्तम(जनक वर्णित तीन निष्ठाएँ।)
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मोक्ष (गीता की दो निष्ठाएँ।)
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