गीता रहस्य -तिलक पृ. 350

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

सारांश, यही पक्ष गीता में सर्वोत्‍तम ठहराया गया है, कि मोक्ष-प्राप्ति के लिये यद्यपि कर्म की आवश्‍यकता नहीं है, तथापि उसके साथ ही साथ दूसरे कारणों के लिये-अर्थात्, एक तो अपरिहार्य समझ कर, और दूसरे जगत् के धारण-पोषण के लिये आवश्‍यक मान कर-निष्‍काम बुद्धि से सदैव समस्‍त कर्मों को करते रहना चाहिये; अथवा गीता का अन्तिम मत ऐसा है, कि ‘’कृतबुद्विषु कर्तार: कर्तृषु ब्रह्मवादिन:’’[1]मनु, के इस वचन के अनुसार कर्तृत्‍व और ब्रह्मज्ञान का योग या मेल ही सब में उत्‍तम है, और निरा कर्तृत्‍व या कोरा ब्रह्मज्ञान प्रत्‍येक एकदेशीय है। वास्‍तव में यह प्रकरण यहीं समाप्‍त हो गया। परन्‍तु यह दिखलाने के लिये, कि गीता का सिद्धान्‍त श्रुति-स्‍मृति-प्रतिपादित है, ऊपर भिन्‍न-भिन्‍न स्‍थानों पर जो वचन उद्धृत किये हैं, उनके सम्‍बन्‍ध में कुछ कहना आवश्‍यक है। क्‍योंकि उपनिषदों पर जो साम्‍प्रदायिक भाष्‍य हैं, उनसे बहुतेरों की यह समझ हो गई है, कि समस्‍त उपनिषद संन्‍यासप्रधान या निवृत्तिप्रधान हैं। हमारा यह कथन नहीं कि उपनिषदों में संन्‍यासमार्ग है ही नहीं। ब्रहदारणयकोपनिषद में कहा है; - यह अनुभव हो जाने पर, कि परब्रह्म के सिवा और कोई वस्‍तु सत्‍य नहीं है ‘’ कुछ ज्ञानी पुरुष पुत्रैषणा और लोकैषणा की परवा न कर, ‘हमें सन्‍तति से क्‍या काम? संसार ही हमारा आत्‍मा है’ यह कह कर आनन्‍द से भिक्षा मांगते हुए घूमते हैं’’[2]

परन्‍तु बृहदारण्‍यक में यह नियम कहीं नही लिखा कि समस्‍त ब्रह्मज्ञानियों को यही पक्ष स्‍वीकार करना चाहिये। और क्‍या कहें; जिसे यह उपदेश किया गया, उसका इसी उपनिषद में वर्णन है,कि वह जनक राजा ब्रह्मज्ञान के शिखर पर पहुँच कर अमृत हो गया था। परन्‍तु यह कहीं नहीं बतलाया है, उसने याज्ञवल्‍क्‍य के समान जगत् को छोड़ कर संन्‍यास ले लिया। इससे स्‍पष्‍ट होता है, कि जनक का निष्‍काम कर्ममार्ग और याज्ञवल्‍क्‍य का कर्म-संन्‍यास-दोनों-बहदारणयकोपनिषद को विकल्‍प रूप से सम्‍मत है और वेदान्‍तसूत्र-कर्त्‍ता ने भी यही अनुमान किया है[3]। कठोपनिषद इससे भी आगे बढ़ गया है। पांचवें प्रकरण में हम यह दिखला आये हैं कि हमारे मत में, कठोपनिषद में निष्‍काम कर्मयोग ही प्रतिपाद्य है। छान्‍दोपनिषद[4] में यही अर्थ प्रतिपाद्य है, और अन्‍त में स्‍पष्‍ट कह दिया है, कि ‘’गुरु से अध्‍ययन कर, फिर कदम्‍ब में रह कर धर्म से बर्तनेवाला ज्ञानी पुरुष ब्रह्मलोक को जाता है, वहाँ से फिर नहीं लौटता।’’ तैत्तिरीय तथा श्‍वेताश्‍वर उपनिषदों के इसी अर्थ के वाक्‍य ऊपर दिये गये हैं[5]। इसके सिवा, यह भी ध्‍यान देने योग्‍य बात है, कि उपनिष्‍ज्ञदों में जिन जिन ने दूसरों को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनु. 1. 97
  2. 4. 4. 22
  3. वेसू. 3. 4. 15
  4. 8. 15. 1
  5. तै. 1. 9 और श्‍वे. 6.4

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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