गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
इसी से ज्ञानी और विवेकी पुरुष, सामान्य लोगों के समान, फल की आसक्ति अपना अभिलाषा तो नहीं रखते; किन्तु वे लोग जगत् के व्यवहार की सिद्धि के लिये, प्रवाह-पतित कर्म का (अर्थात् कर्म अनादि प्रवाह में शास्त्र से प्राप्त यथाधिकार कर्म का) जो छोटा-बड़ा भाग मिले उसे ही, शान्तिपूर्वक कर्त्तव्य समझ कर किया करते हैं। और, फल पाने के लिये, कर्म-संयोग पर (अथवा भक्ति-दृष्टि से परमेश्वर की इच्छा पर)। निर्भर होकर निश्चिन्त रहते हैं “तेरा अधिकार केवल कर्म करने का है, फल होना तेरे अधिकार की बात नहीं”[1] इत्यादि उपदेश जो अर्जुन को किया है, उसका रहस्य भी यही है। इस प्रकार फलाशा को त्याग कर कर्म करते रहने पर, आगे कुछ कारणों से कदाचित् कर्म निष्फल हो जांय; तो निष्फलता का दु:ख मानने के लिये हमें कोई कारण ही नहीं रहता, क्योंकि हम तो अपने अधिकार का काम कर चुके। उदाहरण लीजिये; वैद्यशास्त्र का मत है, कि आयु की डोर (शरीर की पोषण करने वाली नैसर्गिक धातुओं की शक्ति) सबल रहे बिना निरी ओषधियों से कभी फ़ायदा नहीं होता; और इस डोर की सबलता अनेक प्राक्तन अथवा पुश्तैनी संस्कारों का फल है। यह बात वैद्य के हाथ से होने योग्य नहीं, और उसे इसका निश्चयात्मक ज्ञान हो भी नहीं सकता। ऐसा होते हुए भी, हम प्रत्यक्ष देखते हैं, कि रोगी लोगों को ओषधि देना अपना कर्त्तव्य समझ कर केवल परोपकार की बुद्धि से, वैद्य अपनी बुद्धि के अनुसार हजा़रों रोगियों को दवाई दिया करते हैं। इस प्रकार निष्काम-बुद्धि से काम करने पर, यदि कोई रोगी चंगा न हो, तो इससे वह वैद्य उद्विग्न नहीं होता; बल्कि बड़े शान्त चित्त से यह शास्त्रीय नियम ढूंढ़ निकालता है, कि अमुक रोग में अमुक ओषधि से भी सैकड़े इतने रोगियों को आराम होता है। परन्तु इसी वैद्य का लड़का जब बीमार पड़ता है, तब उसे ओषधि देते समय वह आयुष्य की डोर-वाली बात भूल जाता है और ममतायुक्त फलाशा से उसका चित्त घबड़ा जाता है कि “मेरा लड़का अच्छा हो जाय।“ इसी से उसे या तो दूसरा वैद्य बुलाना पड़ता है, या दूसरे वैद्य की सलाह की आवश्यकता होती है। इस छोटे से उदाहरण से ज्ञात होगा, कि कर्मफल में ममतारूप आसक्ति किसे कहना चाहिये और फलाशा न रहने पर भी निरी कर्तव्य–बुद्धि से कोई भी काम किस प्रकार किया जा सकता है। इस प्रकार फलाशा को नष्ठ करने के लिये यद्यपि ज्ञान की से मन में वैराग्य का भाव अटल होना चाहिये; परन्तु किसी कपड़े का रंग (राग) दूर करने के लिये जिस प्रकार कोई कपड़े को फाड़ना उचित नहीं समझता; उसी प्रकार यह कहने से कि ‘किसी कर्म में आसक्ति, काम, संग, राग अथवा प्रीति न रखो, उस कर्म को ही छोड़ देना ठीक नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी.2.47
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