गीता रहस्य -तिलक पृ. 319

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

यदि कोई मनुष्‍य फल पाने की इच्‍छा, आग्रह या वृथा आसक्ति न रखे; तो उससे यह मतलब नहीं पाया जाता कि वह अपने प्राप्त-कर्म को, केवल कर्तव्‍य समझ कर, करने की बुद्धि और उत्‍साह को भी, इस आग्रह के साथ ही साथ, नष्ठ कर डाले। अपने फ़ायदे के सिवा इस संसार में जिन्‍हें दूसरा कुछ नहीं देख पड़ता, और जो पुरुष केवल फल की इच्‍छा से ही कर्म करने में मस्‍त रहते हैं, उन्हें सचमुच फलाशा छोड़ कर कर्म करना शक्य न जंचेगा; परन्‍तु जिनकी बुद्धि ज्ञान से सम और विरक्त हो गई है, उनके लिये कुछ कठिन नहीं है। पहले तो यह समझ ही गलत है, कि हमें किसी काम का जो फल मिला करता है, वह केवल हमारे ही कर्म का फल है। यदि पानी की द्रवता और अग्नि की उष्‍णता की सहायता न मिले; तो मनुष्‍य कितना ही सिर क्‍यों न खपावे, उसके प्रयत्‍न से पाक‍-सिद्धि कभी हो नहीं सकेगी-भोजन पकेगा ही नहीं; और अग्नि आदि में इन गुण-धर्मों को मौजूद रखना या न रखना कुछ मनुष्‍य के बस या उपाय की बात नहीं है। इसी से कर्म-सृष्टि के इन स्‍वयंसिद्ध विविध व्यापारों अथवा धर्मों का पहले यथाशक्ति ज्ञान प्राप्त कर मनुष्‍य को उसी ढंग से अपने व्‍यव‍हार करने पड़ते हैं, जिससे कि वे व्‍यापार अपने प्रयत्‍न के अनुकूल हों।

इससे कहना चाहिये, कि प्रयत्‍नों से मनुष्‍य को जो फल मिलता है, वह केवल उसके ही प्रयत्‍नों का फल नहीं है, बरन् उसके कार्य और कर्मसृष्टि के तदनुकूल अनेक स्‍वयंसिद्ध धर्म–इन दोनों के संयोग का फल है। परन्‍तु प्रयत्‍नों की सफलता के लिये इस प्रकार जिन ना‍नाविध सृष्टि-व्‍यापारों की अनुकूलता आवश्‍यक है, कई बार उन सब मनुष्‍य को यर्थाथ ज्ञान नहीं रहता और कुछ स्‍थानों पर तो होना शक्‍य भी नहीं है, इसे ही ‘दैव’ कहते हैं। यदि फल सिद्धि के लिये ऐसे सृष्टि-व्‍यापारों की सहायता अत्‍यंन्‍त आवश्‍यक है जो हमारे अधिकार में नहीं और न उन्‍हें हम जानते हैं, तो आगे कहना नहीं होगा कि ऐसा अभिमान करना मूर्खता है कि “केवल अपने प्रयत्‍न से ही मैं अमुक बात कर लूंगा”[1]। क्‍योंकि, कर्म-सृष्टि के ज्ञात और अज्ञात व्‍यापारों का मानवी प्रयत्‍नों से संयोग होने पर जो फल होता है, वह केवल कर्म के नियमों से ही हुआ करता है; इसलिये हम फल की अभिलाषा करें या न करें, फल-सिद्धि में इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता; हमारी फलाशा अलबत हमें दु:खकारक हो जाती है। परन्‍तु स्‍मरण रहे कि मनुष्‍य के लिये आवश्‍यक बात अकेले सृष्टि व्‍यापार स्‍वयं अपनी ओर से संघटित हो कर नहीं कर देते। चने की रोटी को स्‍वादिष्ठ बनाने के लिये जिस प्रकार आटे में थोड़ा सा नमक मिलाना पड़ता है, उसी प्रकार कर्म-सृष्टि के इन स्‍वयंसिद्ध व्‍यापारों को मनुष्‍यों के उपयोगी होने के लिये उनमें मानवी प्रयत्‍न की थोड़ी सी मात्रा मिलानी पड़ती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.18.14-16देखो

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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