गीता रहस्य -तिलक पृ. 260

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण

‘ जो जस करै सो तस फल चाखा' यानी जैसी करनी वैसी भरनी" यह नियम न केवल एक ही व्यक्ति के लिये; किंतु कुटुम्ब, जाति राष्ट्र और समस्त संसार के लिये भी उपयुक्त होता है और चूंकि प्रत्येक मनुष्य का किसी न किसी कुटुम्ब,जाति, अथवा देश में समावेश हुआ ही करता है इस लिये उसे स्वयं अपने कर्मों के फलों को भी अंशत: भोगना पड़ता है। परन्तु व्यवहार में प्राय: एक मनुष्य के कर्मों का ही विवेचन करने का प्रसंग आया करता है; इ‍सलिए कर्म-विपाक प्रकिया मे कर्म के विभाग प्राय: एक मनुष्‍य को ही लक्ष्‍य करके किये जाते हैं। उदाहरणार्थ, मनुष्‍य से किये जाने वाले अशुभ कर्मों के मुनजी ने – कायिक, वाचिक और मानसिक – तीन भेद किये हैं। व्‍यभिचार, हिंसा और चोरी– इन तीनों को कायिक; कटु, मिथ्‍या, ताना मारना और असंगत बोलना– इन चारों को वाचिक; और पर-द्रव्‍याभिलाषा, दूसरों का अपहित-चिन्‍तन और व्‍यर्थ आग्रह करना– इन तीनों को मानसिक पाप कहते हैं। सब मिला कर दस प्रकार के अशुभ या पापकर्म बतलाये गये हैं[1] और इनके फल भी कह गये हैं। परन्‍तु ये भेद चिरस्‍थायी नहीं है; क्‍योंकि इसी अध्‍याय में सब कर्मों के फिर भी–सात्‍विक, राजस और तामस– तीन किये गये हैं और प्राय: भगवद्गीता मे दिये गये वर्णन के अनुसार इन तीनों प्रकार के गुणों या कर्मों के लक्षण भी बतलाये गये हैं[2]। परन्‍तु कर्म-विपाक प्रकरण में कर्म का जो सामान्‍यत: विभाग पाया जाता है, वह दोनों से भी भिन्‍न है; उसमें कर्म के संचित प्रारब्‍ध और क्रियमाणा, ये तीन भेद किये जाते हैं।

किसी मनुष्‍य के द्वारा इस क्षण तक किया गया जो कर्म है– चाहे वह इस जन्‍म मे किया गया हो या पूर्वजन्‍म में– वह सब ‘संचित’ का दूसरा नाम और मिमांसकों की परिभाषा मे ‘अपूर्व’ भी है। इन नामों के होने के कारण यह है कि जिस समय कर्म या क्रिया की जाती है उसी समय के लिये वह दृश्‍य रहती है; उस समय के बीत जाने पर वह क्रिया स्‍वरूपत: शेष नही रहती; किन्‍तु उसके सूक्ष्‍म अतएव अदृश्‍य अर्थात अपूर्व और विलक्षण परिणाम ही बाकी रह जाते हैं[3]। कुछ भी हो; परन्‍तु इसमें सन्‍देह नहीं कि इस क्षण तक जो जो कर्म किये हों उन सब के परिणामों के संग्रह को ही ‘संचित’‘अदृष्‍ट’या ‘अपूर्व’ कहते हैं। इन सब संचित कर्मों को एकदम भोगना असंभव है, क्‍योंकि इनके परिणामों में से कुछ परस्‍पर-विरोधी अर्थात भले और बुरे दोनों प्रकार के फल देने वाले हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, कोई संचित कर्म स्‍वर्गप्रद और कोई नरकप्रद भी होते है; इसलिए इन दोनों के फलों को एक ही समय भोगना सम्भव नहीं है – इन्‍हें एक के बाद एक भोगना पड़ता है। अत:एव ‘संचित’ में से जितने कर्मों के फलों को भोगना पहले शुरू होता है उतने ही को ‘प्रारब्‍ध’ अर्थात आरंभित ‘संचित’ कहते हैं। व्‍यवहार में संचित के अर्थ में ही ‘प्रारब्‍ध’ अर्थात आरंभित ‘संचित’ कहते हैं। व्‍यवहार में संचित के अर्थ में ही 'प्रारब्ध' शब्द का बहुधा उपयोग किया जाता है; परंतु यह भूल है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनु. 12. 5,मभा. अनु. 13
  2. गी. 14.11.-15; 18.23-25; मनु. 12. 31-34
  3. वेसू. शांभा. 3. 2. 39,40

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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