गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
अब यही देखना है कि यह समझ सच है या झूठ। यदि इस समझ को झूठ कहें, तो हम देखते हैं कि इसी के आधार से चोरी, हत्या आदि अपराध करनेवालों को अपराधी ठहरा कर सजा दी जाती है; और यदि सच मानें तो कर्म-वाद, कर्म-विपाक या दृश्य-सृष्टि के नियम मिथ्या प्रतीत होते हैं; आधिभौतिक शास्त्रों में केवल जड़ पदार्थों की क्रियाओं का विचार करना पड़ता है; इसलिये यहाँ वह प्रश्न उत्पन्न ही नहीं होता; परंतु जिस कर्मयोगशास्त्र में ज्ञानवान मनुष्य के कर्त्तव्य अकर्त्तव्य का विवेचन करना पड़ता है, उसमें यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न होता है और इसका उत्तर देना भी आवश्यक होता है। क्योंकि एक बार यदि वही अंतिम निश्चय हो जाए कि मनुष्य को कुछ भी प्रवृति-स्वातन्त्रय प्राप्त नही है; तो फिर अमुक प्रकार से बुद्धि को शुद्ध करना चाहिेये, अमुक कार्य करना चाहिए, अमुक नहीं करना चाहिये, अमुक धर्म्य है, अमुक अध्मर्य इत्यादि विधि-निषेधशास्त्र के सब झगड़े भी आप ही आप छूट जायंगे[1], [2] और तब परम्परा से या प्रत्यक्ष रीति से महामाया प्रकृति के दासत्व मे सदैव रहना ही मनुष्य का पुरुषार्थ हो जायेगा अथवा पुरुषार्थ ही काहे का? अपने काबू की बात हो तो पुरुषार्थ ठीक है; परन्तु जहाँ एक रत्ती भर भी अपनी सत्ता और इच्छा नही रह जाती वहाँ दास्य और परतंत्रता के सिवा और हो ही क्या सकता हैॽ हल में जुते हुए बैलों के समान सब लोगों को प्रकृति की आज्ञा मे रहकर, एक आधुनिक कवि के कथनानुसार ‘पदार्थधर्मों की श्रृंखलाओं’ से बंध जाना चाहिये। हमारे भारत-वर्ष मे कर्म-वाद या दैव-वाद से और पश्चिमीदेशों मे पहल ईसाई धर्म के भवितव्यता-वाद से तथा अर्वाचीन काल मे शुद्ध अधिभौतिक शास्त्रों के सृष्टि-कम-वाद से इच्छा स्वतन्त्रय के इस विषय की और पंडितों का ध्यान आकर्षित हो गया है और इसकी बहुत कुछ चर्चा हो रही है। परन्तु यहाँ पर इसका वर्णन करना असंभव है; इसलिए इस प्रकरण में यही बतलाया जाएगा कि वेदान्त शास्त्र और भगवदगीता ने इस प्रश्न का क्या उतर दिया है। यह सच है कि कर्म-प्रवाह अनादि है और जब एक बार कर्म शुरू हो जाता है तब परमेश्वर भी उसमें हस्तक्षेप नही करता। तथापि अध्यात्मवाद का यह सिद्धांत है कि दृश्य-सृष्टि केवल नाम रूप या कर्म ही नही है; किन्तु इस नाम रूपात्मक आवरगा के लिये आधारभुत एक आत्मरूपी, स्वतन्त्र और अविनाशी ब्रह्म-सृष्टि है तथा मनुष्य के शरीर का आत्मा इस नित्य एवं स्वतन्त्र परब्रह्म ही का अंश है। इस सिद्धांत की सहायता से, प्रत्यक्ष मे अनिवार्य दिखने वाली उक्त अड़चन से भी छुटकारा हो जाने के लिए, हमारे शास्त्रकारों का निश्चित किया हुआ एक मार्ग है। परन्तु इसका विचार करने के पहले कर्मविपाक प्रकिया के शेष अंश का वर्णन पूरा कर लेना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वेस. 2.3. 33
- ↑ वेदान्तसूत्र के इस अधिकरण को ‘जीवकर्तृत्वाधिकरण’कहते है। उसका पहले ही सूत्र है ‘कर्ता शास्त्रार्थक्त्वात्" अर्थात विधि-निषेधशास्त्र में अर्थवत्व होने के लिये जीव को कर्ता मानना चाहिये। पाणिनि के ‘स्वतंत्र:कर्ता’ ( पा. 1. 4. 54) सूत्र के ‘कर्ता’ शब्द से आत्मस्वातंत्रय का बोध होता है और इससे मालूम होता है कि यह अधिकरण इसी विषय का हैं।
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