गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पहला प्रकरण
अठारहवें अध्याय के उपसंहार में भगवान ने अपना निश्चित और उत्तम मत और भी एक बार प्रगट किया है- इन सब कर्मों को करना ही चाहिये"[1]। और, अंत में[2], भगवान ने अर्जुन से प्रश्न किया है कि "हे अर्जुन! तेरा अज्ञान-मोह अभी तक नष्ट हुआ कि नहीं" इस पर अर्जुन ने संतोष जनक उतर दियाः- नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्माच्युत । अर्थात् हे अच्युत! स्वकर्तव्य संबंधी मेरा मोह और संदेह नष्ट हो गया हैं, अब मैं आप के कथन अनुसार सब काम करूंगा। यह अर्जुन का केवल मौखिक उतर नहीं था; उसने सचमुच उस युद्ध में भीष्म-कर्ण- जयद्रथ आदि का वध भी किया। इस पर कुछ लोग कहते हैं कि भगवान् ने अर्जुन को जो उपदेष दिया हैं वह केवल निवृति विषयकज्ञान, योग या भक्ति का ही हैं और यही गीता का मुख्य प्रतिपादय विषय भी हैं। परन्तु युद्ध का आरंभ हो जाने के कारण बीच बीच में, कर्म की थोडी सी प्रशंसा करके, भगवान् ने अर्जुन को युद्ध पूरा करने दिया हैं; अर्थात् युद्ध का समाप्त करना मुख्य बात नहीं हैं- उसको सिर्फ आनुषंगिक या अर्थ वादात्मक ही मानना चाहिये। परन्तु ऐसे अधर और कमज़ोर युक्तिवाद से गीता के उपकमोप संहार और परिणाम की उपपति ठीक ठीक नहीं हो सकती यहा कुरुक्षेत्र पर तो इसी बात के महत्त्व को दिखाने की आवश्यकता थी कि स्व धर्म संबंधी अपने कर्तव्य को मरणार्पंत, अनेक कष्ट और बाधाएँ सह कर भी करते रहना चाहिये। इस बात को सिद्ध करने के लिये श्रीकृष्ण ने गीता भर में कहीं भी बे-सिर पैर का कारण नहीं बतलाया हैं, जैसा ऊपर लिखे हुए कुछ लोगों के आक्षेप में कहा गया हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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