गीता रहस्य -तिलक पृ. 24

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

Prev.png
पहला प्रकरण

यदि ऐसा युक्ति हीन कारण बतलाया भी गया होता तो अर्जुन सरीखा बुद्धिमान् और छान-बीन करने वाला पुरुष इन बातो पर विश्वास कैसे कर लेता उसके मन में मुख्य प्रश्न क्या था यही न, कि भयंकर कुल क्षय को प्रत्यक्ष आखों के आगे देख कर भी मुझे युद्ध करना चाहिये या नहीं; और युद्ध करना ही चाहिये तो कैसे, जिससे पाप ने लगे इस विकट प्रश्न के इस प्रधान विषय के उतर को- कि “निष्काम बुद्धि से युद्ध कर” या 'कर्मकर'- अर्थवाद कहकर कभी भी नहीं टाल सकते। ऐसा करने मानो घर के मालिक को उसी के घर में मेहमान बना देना हैं! हमारा यह कहना नहीं कि गीता में वेदांत, भक्ति और पातंजलयोग का उपदेश बिलकुल दिया ही नहीं गया हैं। परन्तु इन तीनों विषयों को गीता में जो मेल किया गया हैं वह केवल ऐसा ही होना चाहिये कि जिससे, परस्पर- विरुद्ध धर्मों के भयंकर संकट में पड़े हुए यह करू कि वह कहने वाले कर्तव्य- मूढ़ अर्जुन को अपने कर्तव्य के विषय में कोई निष्पापमार्ग मिल जाय और वह क्षात्रधर्म के अनुसार अपने शास्त्रविहित कर्म में प्रवृत हो जाय। इससे यही बात सिद्ध होती हैं कि प्रवृति धर्म ही का ज्ञान गीता का प्रधान विषय हैं और अन्य सब बातें उस प्रधान विषय ही की सिद्धि के लिये कही गई हैं अर्थात् वे सब आनुषंगिक हैं, अत एव गीता धर्म का रहस्य भी प्रवृति विषयक अर्थात् कर्म विषयक ही होना चाहिये।
परन्तु इस बात का स्पष्टीकरण किसी भी टीकाकार ने नहीं किया हैं कि यह प्रवृति विषयक रहस्य क्या हैं और वेदान्तशास्त्र ही से कैसे सिद्ध हो सकता हैं। जिस टीकाकार को देखो वही, गीता के आदयांत के उपक्रम-उपसंहार पर ध्यान न दे कर, निवृति दृष्टि से इस बात का विचार करने ही में निमग्न देख पड़ता हैं, कि गीता का ब्रह्माज्ञान या भक्ति अपने ही संप्रदाय के अनुकूल कैसे हैं मानो ज्ञान और भक्ति का कर्म से नित्य संबंध बतलाना एक बड़ा भारी पाप हैं। यही शंका एक टीकाकार के मन में हुई थी और उसने लिखा था कि स्वयं श्रीकृष्ण के चरित्र को आख के सामने रखकर भगवद्भीता का अर्थ करना चाहिये। श्री श्रेत्र काशी के सुप्रसिद्ध अद्धैती परम हंस श्रीकृष्णानन्द स्वामी का, जो अभी हाल ही में समाधिस्थ हुए हैं, भगवद्वीता पर लिखा हुआ 'गीता-परामर्श' नामक संस्कृत में एक निबंध हैं ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः