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पहला प्रकरण
यदि ऐसा युक्ति हीन कारण बतलाया भी गया होता तो अर्जुन सरीखा बुद्धिमान् और छान-बीन करने वाला पुरुष इन बातो पर विश्वास कैसे कर लेता उसके मन में मुख्य प्रश्न क्या था यही न, कि भयंकर कुल क्षय को प्रत्यक्ष आखों के आगे देख कर भी मुझे युद्ध करना चाहिये या नहीं; और युद्ध करना ही चाहिये तो कैसे, जिससे पाप ने लगे इस विकट प्रश्न के इस प्रधान विषय के उतर को- कि “निष्काम बुद्धि से युद्ध कर” या 'कर्मकर'- अर्थवाद कहकर कभी भी नहीं टाल सकते। ऐसा करने मानो घर के मालिक को उसी के घर में मेहमान बना देना हैं! हमारा यह कहना नहीं कि गीता में वेदांत, भक्ति और पातंजलयोग का उपदेश बिलकुल दिया ही नहीं गया हैं। परन्तु इन तीनों विषयों को गीता में जो मेल किया गया हैं वह केवल ऐसा ही होना चाहिये कि जिससे, परस्पर- विरुद्ध धर्मों के भयंकर संकट में पड़े हुए यह करू कि वह कहने वाले कर्तव्य- मूढ़ अर्जुन को अपने कर्तव्य के विषय में कोई निष्पापमार्ग मिल जाय और वह क्षात्रधर्म के अनुसार अपने शास्त्रविहित कर्म में प्रवृत हो जाय। इससे यही बात सिद्ध होती हैं कि प्रवृति धर्म ही का ज्ञान गीता का प्रधान विषय हैं और अन्य सब बातें उस प्रधान विषय ही की सिद्धि के लिये कही गई हैं अर्थात् वे सब आनुषंगिक हैं, अत एव गीता धर्म का रहस्य भी प्रवृति विषयक अर्थात् कर्म विषयक ही होना चाहिये।
परन्तु इस बात का स्पष्टीकरण किसी भी टीकाकार ने नहीं किया हैं कि यह प्रवृति विषयक रहस्य क्या हैं और वेदान्तशास्त्र ही से कैसे सिद्ध हो सकता हैं।
जिस टीकाकार को देखो वही, गीता के आदयांत के उपक्रम-उपसंहार पर ध्यान न दे कर, निवृति दृष्टि से इस बात का विचार करने ही में निमग्न देख पड़ता हैं, कि गीता का ब्रह्माज्ञान या भक्ति अपने ही संप्रदाय के अनुकूल कैसे हैं मानो ज्ञान और भक्ति का कर्म से नित्य संबंध बतलाना एक बड़ा भारी पाप हैं। यही शंका एक टीकाकार के मन में हुई थी और उसने लिखा था कि स्वयं श्रीकृष्ण के चरित्र को आख के सामने रखकर भगवद्भीता का अर्थ करना चाहिये। श्री श्रेत्र काशी के सुप्रसिद्ध अद्धैती परम हंस श्रीकृष्णानन्द स्वामी का, जो अभी हाल ही में समाधिस्थ हुए हैं, भगवद्वीता पर लिखा हुआ 'गीता-परामर्श' नामक संस्कृत में एक निबंध हैं ।
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