गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
सांख्यों के द्वैत—प्रकृति और पुरुष—को न मान कर जब यह मान लिया गया, कि इस जगत की जड़ में परमेश्वर रूपी अथवा पुरुषोत्त्म रूपी एक तीसरा ही नित्य तत्त्व है और प्रकृति तथा पुरुष दोनों उसकी विभूतियां हैं; तब सहज ही यह प्रश्न होता है कि इस तीसरे मूलभूत तत्त्व का स्वरूप क्या है और प्रकृति तथा पुरुष से इसका कौन सा सम्बन्ध है? प्रकृति, पुरुष और परमेश्वर, इसी त्रयी को अध्यात्मशास्त्र में क्रम से जगत, जीव और परब्रह्म कहते हैं; और इन तीनों वस्तुओं के स्वरूप तथा इनके पारस्परिक संबंध का निर्णय करना ही वेदान्तशास्त्र का प्रधान कार्य है; एवं उपनिषदों में भी यही चर्चा की गई है। परन्तु सब वेदान्तियों का मत इस त्रयी के विषय में एक नहीं है। कोई कहते हैं कि ये तीनों पदार्थ आदि में एक ही हैं; और कोई यह मानते हैं, कि, जीव और जगत परमेश्वर से आदि ही में थोड़े या अत्यन्त भिन्न हैं। इसी से वेदान्तियों में अद्वैती, विशिष्टाद्वैती और द्वैती भेद उत्पन्न हो गये हैं। यह सिद्धान्त सब लोगों को एक सा ग्राह्य है कि जीव और जगत के सारे व्यवहार परमेश्वर की इच्छा से होते हैं। परन्तु कुछ लोग तो मानते हैं कि, जीव, जगत और परब्रह्म, इन तीनों का मूलस्वरूप आकाश के समान एक ही और अखण्डित है; तथा दूसरे वेदान्ती कहते हैं कि जड़ और चैतन्य का एक होना सम्भव नहीं, अतएव अनार या दाड़िम के फल में यद्यपि अनेक दाने रहते हैं तो भी उनसे जैसे मूल की एकता नष्ट नहीं होती, वैसे ही जीव और जगत यद्यपि परमेश्वर में भरे हुए हैं तथापि ये मूल में उससे भिन्न हैं- और उपनिषदों में जब ऐसा वर्णन आता है कि तीनों ‘एक’ हैं, तब उसका अर्थ ‘दाड़िम के फल के समान एक’ जानना चाहिये। जब जीव के स्वरूप के विषय में यह मतान्तर उपस्थित हो गया, तब भिन्न भिन्न साम्प्रदायिक टीकाकार अपने अपने मत के अनुसार उपनिषदों और गीता के भी शब्दों की खींचातानी करने लगे। परिणाम इसका यह हुआ कि गीता का यथार्थ स्वरूप—उसमें प्रतिपादित सच्चा कर्मयोग विषय—तो एक और रह गया और अनेक साम्प्रदायिक टीकाकारों के मत में गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय यही हो गया, कि गीता-प्रतिपादित वेदान्त द्वैत मत का है या अद्वैत मत का! इसके बारे में अधिक विचार करने के पहले यह देखना चाहिए कि जगत (प्रकृति), जीव (आत्मा अथवा पुरुष)’, और परब्रह्मा (परमात्मा अथवा पुरुषोत्तम) के परस्पर संबंध के विषय में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही गीता में क्या कहते हैं। आगे चल कर पाठकों को विदित होगा कि इस विषय में गीता और उपनिषदों का एक ही मत है और गीता में कहे गये सब विचार उपनिषदों में पहले ही आ चुके हैं। प्रकृति और पुरुष के भी परे जो पुरुषोत्तम, परपुरुष, परमात्मा या परब्रह्म है उसका वर्णन करते समय भगवद्गीता में पहले उसके दो स्वरूप बतलाये गये हैं, यथा व्यक्त और अव्यक्त (आंखों से दिखने वाला और आंखों से न दिखने वाला)। इसमें सन्देह नहीं कि व्यक्त स्वरूप अर्थात इन्द्रिय-गोचर रूप् सगुण ही होना चाहिये। और अव्यक्त रूप् यद्यपि इन्द्रियों को अगोचर है तो भी इतने ही से यह नहीं कहा जा सकता कि वह निर्गुण ही हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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