गीता रहस्य -तिलक पृ. 185

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

क्योंकि, यद्यिपि वह हमारी आंखों से न देख पड़े तो भी उसमें सब प्रकार के गुण सूक्ष्म रूप् से रह सकते हैं। इसलिये अव्यक्त के भी तीन भेद किये गये हैं जैसे सगुण, सगुण-निर्गुण और निर्गुण। जहाँ ‘गुण’ शब्द में उन सब गुणों का समावेश किया गया है, कि जिनका ज्ञान मनुष्य को केवल उसकी बाह्येन्द्रियों से ही नहीं होता, किन्तु मन से भी होता है। परमेश्वर के मूर्तिमान अवतार भगवान श्रीकृष्ण स्वयं साक्षात, अर्जुन के सामने खड़े हो कर उपदेश कर रहे थे, इसलिये गीता में जगह-जगह पर उन्होंने अपने विषय में प्रथम पुरुष का निर्देश इस प्रकार किया है-जैसे; ‘प्रकृति मेरा स्‍वरूप है’ [1] ‘जीव मेरा अंश है’ [2], ‘सब भूतों का अन्‍तर्यामी आत्मा मैं हॅूं’ [3], ‘संसार में जितनी श्रीमान या विभूतिमान मूर्तियां हैं वे सब मेरे अंश से उत्‍पन्‍न हुई हैं’[4], ‘ मुझमें मन लगा कर मेरा भक्‍त हो’ [5], ‘तो तू मुझ में मिल जायेगा,—तू मेरा प्रिय भक्त है इसलिये मैं तुझे यह प्रतिज्ञापूर्वक बतलाता हूँ,’ [6]

और जब अपने विश्वरूप् -दर्शन से अर्जुन को यह प्रत्यक्ष अनुभव करा दिया कि सारी चराचर सृष्टि मेरे व्यक्त रूप में ही साक्षात भरी हुई है; तब भगवान ने उसको यही उपदेश किया है, कि अव्यक्त रूप् से व्यक्तरूप् की उपासना करना अधिक सहज है, इसलिये तू मुझ में ही अपना भक्तिभाव रख[7] मैं ही ब्रह्म का, अव्यक्त मोक्ष का, शाश्वत धर्म, और अनन्त सुख का मूलस्थान हूँ [8]। इससे विदित होगा कि गीता में आदि से अन्त तक अधिकांश में परमात्मा के व्यक्त स्‍वरूप का ही वर्णन किया गया है। इतने ही से केवल भक्ति के अभिमानी कुछ पंडितों और टीकाकारों ने यह मत प्रगट किया है, कि गीता में परमात्मा का व्यक्त रूप ही अन्तिम साध्य माना गया है; परन्तु यह मत सच नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उक्त वर्णन के साथ ही भगवान ने स्पष्ट रूप से कह दिया है, कि मेरा व्यक्त स्‍वरूप मायिक है और उसके परे जो अव्यक्त रूप् अर्थात इन्द्रियों को अगोचर है वही मेरा सच्चा स्‍वरूप है। उदाहरणार्थ सातवें अध्याय [9]में कहा है कि -

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः। परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।

‘‘यद्यपि मैं अव्यक्त अर्थात इन्द्रियों को अगोचर हूँ तो भी मूर्ख लोग मुझे व्यक्त समझते हैं, और व्यक्त से भी परे के मेरे श्रेष्ठ तथा अव्यय रूप को नहीं पहचानते’’ और इसके अगले श्लोक में भगवान कहते हैं कि ‘‘मैं अपनी योगमाया से आच्छादित हूँ, इसलिये मूर्ख लोग मुझे नहीं पहचानते’’[10]। फिर चौथे अध्याय में उन्होंने अपने व्यक्त रूप की उत्पत्ति इस प्रकार बतलाई है- ‘‘मैं यद्यपि जन्म रहित और अव्यय हूँ, तथापि उपनी ही प्रकृति में अधिष्ठित होकर मैं अपनी माया से (स्वात्ममायया) जन्‍म लिया करता हूँ अर्थात व्यक्त हुआ करता हूँ ’’ [11]। वे आगे सातवें अध्याय में कहते हैं-‘‘यह त्रिगुणात्मक प्रकृति मेरी देवी माया है, इस माया को जो पार कर जाते हैं वे मुझे पाते हैं, और इस माया से जिनका ज्ञान नष्‍ट हो जाता है वे मूढ़ नराधम मुझे नहीं पा सकते’’ [12]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 9.8
  2. 15.7
  3. 10.20
  4. 10.41
  5. 9.34
  6. 18.65
  7. 12.8
  8. गी.14.27
  9. गी.7.24
  10. 7.25
  11. 4.6
  12. 7.15

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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