गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
आठवां प्रकरण
बृहदारणयकोपनिषद में कहा है कि, -‘‘जिस प्रकार जोंक (जलायुका) घास के तिनके के एक छोर तक पहुँचने पर दूसरे तिनके पर सामने के पैरों से अपने शरीर का अग्रभाग रखती है और फिर पहले तिनके पर से अपने शरीर के अंतिम भाग को खींच लेती है, उसी प्रकार आत्मा एक शरीर छोड़ कर दूसरे शरीर में जाता है’’[1]। परन्तु केवल इस दृष्टान्त से ये दोनों अनुमान सिद्ध नहीं होते कि, निरा आत्मा ही दूसरे शरीर में जाता है, और वह भी एक शरीर से छूटते ही चला जाता है। क्योंकि बृहदारण्यकोपनिषद [2] में आगे चल कर यह वर्णन किया गया है कि, आत्मा के साथ साथ पांच सूक्ष्म भूत,मन,इन्द्रियां, प्राण और धर्माधर्म भी शरीर से बाहर निकल जाते हैं; और यह भी कहा है कि, आत्मा को अपने कर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न लोक प्राप्त होते हैं एवं वहाँ उसे कुछ काल पर्यंत निवास करना पड़ता है [3]। इसी प्रकार, छान्दोग्योपनिषद में भी आप ( पानी ) मूलतत्त्व के साथ जीव की जिस गति का वर्णन किया गया है [4] उससे, और वेदान्तसूत्रों में उसके अर्थ का जो निर्णय किया गया है[5] उससे, यह स्पष्ट हो जाता है कि, लिंगशरीर में-पानी, तेज और अन्न- इन तीनों मूलतत्त्वों का समावेश किया जाना छांदोग्योंपनिषद को भी अभिप्रेत है। सारांश यही देख पड़ता है कि, महदादि अठारह सूक्ष्म तत्त्वों से बने हुए सांख्यों के ‘लिंग-शरीर’ में ही प्राण और धर्माधर्म अर्थात् कर्म को भी शामिल कर देने से वेदान्त-मतानुसार लिंग-शरीर हो जाता है। परन्तु, सांख्यशास्त्र के अनुसार प्राण का समावेश ग्यारह इन्द्रियों की वृत्तियों में ही, और धर्म-अधर्म का समावेश बुद्धीइन्द्रियों के व्यापार में ही, हुआ करता है; अतएव उक्त भेद के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह केवल शाब्दिक है-वस्तुतः लिंग-शरीर के घटकावयव के संबंध में वेदान्त और सांख्य-मतों में कुछ भी भेद नहीं है। इसीलिये मैत्र्युपनिषद[6]में, ‘‘महदादि सूक्ष्मपर्यंत” यह सांख्योक्त लिंग-शरीर का लक्षण, ‘‘महादाद्यविशेषांतं” इस पर्याय से ज्यों का त्यों रख दिया है [7]। भगवद्गीता[8] में, पहले यह बतला कर कि ‘‘मनः षष्ठानीन्द्रियाणि”- मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ का ही सूक्ष्म शरीर होता है-, आगे ऐसा वर्णन किया है कि ‘‘वायुर्गंधानिवाशयात्” [9]-जिस प्रकार हवा फूलों की सुगन्घ को हर लेती है उसी प्रकार जीव, स्थूल शरीर का त्याग करते समय, इस लिंग-शरीर को अपने साथ ले जाता है। तथापि, गीता में जो अध्यात्म-ज्ञान है वह उपनिषदों ही में से लिया गया है इसलिये कहा जा सकता है कि, ‘मन सहित छः इन्द्रियाँ’ इन शब्दों में पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पन्चतन्मात्राएँ, प्राण और पाप-पुण्य का संग्रह ही भगवान को अभिप्रेत है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बृ4.4.3
- ↑ 4.4.5
- ↑ बृ. 6. 2. 14 और 15
- ↑ छां. 5. 3. 3; 5. 9 .1
- ↑ वेसू. 3. 1. 1-7
- ↑ 6. 10
- ↑ आनंदाश्रम से प्रकाशित द्वात्रिंशदुपनिषदों की पोथी में मैत्र्युपनिषद के उपर्युक्त मंत्र का ‘‘महदाद्यं विशेषान्तं” पाठ है और उसी को टीकाकार ने भी माना है। यदि यही पाठ मान लिया जाय तो लिंगशरीर में आरंभ के महतत्त्व का समावेश करके विशेषान्त पद से सूचित विशेष अर्थात् पन्चमहाभूतों को छोड़ देना पड़ता है। यानि यह अर्थ करना पड़ता है कि, महदाद्यं में से महत को ले लेना और विशेषान्त में से विशेष को छोड़ देना चाहिये। परन्तु जहाँ आद्यन्त का उपयोग किया जाता है वहाँ उन दोनों को लेना या दोनों को छोड़ना युक्त होता है। अतएव प्रो. डॉयसेन का कथन है कि, महदाद्यं पद के अन्तिम अक्षर का अनुस्वार निकाल कर ‘‘महदाद्वविशेषान्तम्” (महदादि+अविशेषान्तम्) पाठ कर देना चाहिये। ऐसा करने पर अविशेष पद बन जाने से, महत् और अविशेष अर्थात् आदि और अंत दोनों को भी एक ही न्याय पर्याप्त होगा और लिंगशरीर में दोनों ही का समावेश किया जा सकेगा। यही डॉयसन के सूचित किये हुए पाठ का विशेष गुण है। परन्तु, स्मरण रहे कि, पाठ चाहे जो हो, अर्थ में फर्क नहीं पड़ता।
- ↑ 15. 7
- ↑ 15. 8
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