गीता रहस्य -तिलक पृ. 174

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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आठवां प्रकरण

मनुस्मृति[1] में भी यह वर्णन किया गया है, कि मरने पर मनुष्य को इस जन्म में किये हुए, पाप-पुण्य का फल भोगने के लिये, पञ्चतन्मात्रात्मक सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है। गीता के ‘‘वायुर्गंधनिवाशयात्” इस दृष्टांत से केवल इतना ही सिद्ध होता है कि, यह शरीर सूक्ष्म है; परन्तु उससे यह नहीं मालूम होता कि उसका आकार कितना बड़ा है। महाभारत के सावित्री-उपाख्यान में यह वर्णन पाया जाता है कि, सत्यवान् के ( स्थूल ) शरीर में से अँगूठे के बराबर एक पुरुष को यमराज ने बाहर निकाला-‘‘अंगुष्ठामात्रं पुरुषं निश्चकर्ष यमा बलात्” [2]; इससे प्रतीत होता है कि, दृष्टांत के लिये ही क्यों न हो, लिंग-शरीर अँगूठे के आकार का माना जाता था।इस बात का विवेचन हो चुका कि, यद्यपि लिंग-शरीर हमारे नेत्रों को गोचर नहीं है तथापि उसका अस्तित्व किन अनुमानों से सिद्ध हो सकता है, और उस शरीर के घटकावयव कौन-कौन से हैं। परन्तु, केवल यह कह देना ही यथेष्ट प्रतीत नहीं होता कि, प्रकृति और पाँच स्थूल महाभूतों के अतिरिक्त अठारह तत्त्वों के समुच्य से लिंग-शरीर निर्माण होता है।

इसमें कोई संदेश नहीं कि, जहाँ-जहाँ लिंग-शरीर रहेगा वहाँ-वहाँ इन अठारह तत्त्वों का समुच्य, अपने-अपने गुण-धर्म के अनुसार, माता-पिता के स्थूल शरीर में से तथा आगे स्थूल-सृष्टि के अन्न से, हस्त-पाद आदि स्थूल अवयव या स्थूल इन्द्रियाँ उत्पन्न करेगा, अथवा उनका पोषण करेगा। परन्तु अब यह बतलाना चाहिये कि, अठारह तत्त्वों के समुच्य से बना हुआ लिंग-शरीर पशु, पक्षी, मनुष्य आदि भिन्न-भिन्न देह क्यों उत्पन्न करता है। सजीव सृष्टि के सचेतन तत्त्व को सांख्य-वादी ‘पुरुष’ कहते हैं; और, सांख्‍य-मतानुसार ये पुरुष चाहे असंख्‍य भी हों तथापि प्रत्‍येक पुरुष स्वभावतः उदासीन तथा अकर्ता है, इसलिये पशु-पक्षी आदि प्राणियों के भिन्न-भिन्न शरीर उत्पन्न करने का कर्तव्य पुरुष के हिस्से में नहीं आ सकता। वेदान्‍त-शास्त्र में कहा है कि, पाप-पुण्य आदि कर्मों के परिणाम से ये भेद उत्पन्न हुआ करते हैं। इस कर्म-विपाक का विवेचन आगे चल कर किया जायेगा। सांख्यशास्त्र के अनुसार कर्म को, पुरुष और प्रकृति से भिन्न, तीसरा तत्त्व नहीं मार सकते; और जबकि पुरुष उदासीन ही है तब यह कहना पड़ता है कि कर्म, प्रकृति के सत्त्व-रज-तमोगुणों का ही, विकार है।

लिंग-शरीर में जिन अठारह तत्त्वों का समुच्य है उनमें से बुद्धितत्त्व प्रधान है। इसका कारण यह है कि, बुद्धि ही से आगे अहंकार आदि सत्रह तत्त्व उत्पन्न होते हैं। अर्थात्, जिसे वेदान्त में कर्म कहते हैं उसी को सांख्यशास्त्र में, सत्त्व-रज-तम-गुणों के न्यूनाधिक परिमाण से उत्पन्न होने वाला, बुद्धि का व्यापार, धर्म या विकार कहतें हैं। बुद्धि के इस धर्म का नाम ‘भाव’ है। सत्त्व-रज-तम-गुणों के तारतम्य से ये ‘भाव’ कई प्रकार के हो जाते हैं। जिस प्रकार फूल में सुगंध तथा कपड़े में रंग लिपटा रहता है, उसी प्रकार लिंग-शरीर में ये भाव भी लिपटे रहते हैं [3]। इन भावों के अनुसार, अथवा वेदान्त-परिभाषा से कर्म के अनुसार, लिंग-शरीर नये-नये जन्म लिया करता है; और जन्म लेते समय, माता-पिताओं के शरीरों में से जिन द्रव्यों को वह आकर्षित किया करता है, उन द्रव्यों में भी दूसरे भाव आ जाया करते हैं। ‘देवयोनि, मनुष्ययोनि, पशुयोनि तथा वृक्षयोनि’ ये सब भेद इन भावों की समुच्यता के ही परिणाम हैं[4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 12.16.17
  2. मभा. वन. 297. 16
  3. सां.का. 40
  4. सां.का. 43-55

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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