गीता रहस्य -तिलक पृ. 166

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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आठवां प्रकरण

अतएव, सृष्ट-युत्पत्ति का वर्णन करते समय, वेदान्ती कहा करते हैं कि, परमेश्वर ही से एक ओर जीव निर्माण हुआ और दूसरी ओर (महदादि सात प्रकृति-विकृति सहित) अष्टधा अर्थात आठ प्रकार की प्रकृति निर्मित हुई [1]। अर्थात् वेदान्तियों के मत से, पच्‍चीस तत्त्वों में से सोलह तत्त्वों को छोड़ शेष नौ तत्त्वों के केवल दो ही वर्ग किये जाते हैं- एक ‘जीव’ और दूसरा ‘अष्टधा प्रकृति’। भगवद्गीता में, वेदान्तियों का यही वर्गीकरण स्वीकृत किया गया है। परन्तु इसमें भी अंत में थोड़ा सा फर्क हो गया है। सांख्य-वादी जिसे पुरुष कहते हैं उसे ही गीता में जीव कहा है और यह बतलाया है कि, वह (जीव) ईश्वर की ‘परा प्रकृति’ अर्थात श्रेष्ठ स्वरूप है; और सांख्य-वादी जिसे मूल प्रकृति कहते हैं उसे ही गीता में परमेश्वर का ‘अपर’ अर्थात कनिष्ठ स्वरूप कहा गया है[2]। इस प्रकार पहले दो बड़े बड़े वर्ग कर लेने पर उनमें से दूसरे वर्ग के अर्थात कनिष्ठ स्वरूप के जब और भी भेद या प्रकार बतलाने पड़ते हैं, तब इस कनिष्ठ स्‍वरूप के अतिरिक्त उससे उपजे हुए शेष तत्त्वों को भी बतलाना आवश्यक होता है।

क्योंकि, यह कनिष्ठ स्‍वरूप [3] स्वयं अपना ही एक प्रकार या भेद हो नहीं सकता। उदाहरणार्थ, जब यह बतलाना पड़ता है कि बाप के लड़के कितने हैं, तब उन लड़कों में ही बाप की गणना नहीं की जा सकती। अतएव, परमेश्वर के कनिष्ठ स्‍वरूप के अन्य भेदों को बतलाते समय, यह कहना पड़ता है कि, वेदान्तियों की अष्टधा प्रकृति में से मूल प्रकृति को छोड़ शेष सात तत्त्व ही (अर्थात महान, अंहकार, और पंचतन्मात्राएं) उस मूलप्रकृति के भेद या प्रकार हैं।परन्तु ऐसा करने से कहना पड़ेगा कि परमेश्वर का कनिष्ठ स्वरूप (अर्थात मूल प्रकृति) सात प्रकार का है; और, ऊपर कह आये हैं, कि वेदान्ती तो प्रकृति को अष्टधा अर्थात आठ प्रकार की मानते हैं। अब इस स्थान पर, यह विरोध देख पड़ता है कि जिस प्रकृति को वेदान्ती अष्टधा या आठ प्रकार की कहें, उसी को गीता सप्तधा या सात प्रकार की कहे!

गीताकार का यही अभीष्ट था कि उक्त विरोध दूर हो जावे और ‘अष्टधा प्रकृति’ का वर्णन बना रहे। इसलिये महान, अहंकार और पञ्चतन्मात्राएं इन सातों में ही मनतत्त्व को सम्मिलित कर गीता में वर्णन किया गया है कि परमेश्वर का कनिष्ठ स्‍वरूप अर्थात मूल प्रकृति अष्टधा है [4]। इनमें से, केवल मन ही में दस इन्द्रियों का और पञ्चतन्मात्राओं में पंचमहाभूतों का समावेश किया गया है। अब यह प्रतीत हो जायेगा कि, गीता में किया गया वर्गीकरण सांख्यों और वेदान्तियों के वर्गीकरण से यद्यपि कुछ भिन्न है, तथापि इससे कुल तत्त्वों की संख्या में कुछ न्यूनाधिकता नहीं हो जाती। सब जगह तत्त्व पच्‍चीस ही माने गये हैं। परन्तु वर्गीकरण की उक्त भिन्नता के कारण किसी के मन में कुछ भ्रम न हो जाय इसलिये ये तीनों वर्गीकरण कोष्ठक के रूप् में एकत्र करके आगे दिये गये हैं। गीता के तेरहवें अध्याय [5]में, वर्गीकरण के झगड़ें में न पड़ कर, सांख्यों के पच्‍चीस तत्त्वों का वर्णन ज्यों का त्यों पृथक पृथक किया गया है; और, इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि, यद्यपि वर्गीकरण में कुछ भिन्नता हो, तथापि तत्त्वों की संख्या दोनों स्थानों पर बराबर ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मभा. शां. 306.29और 310.10देखो
  2. गी. 7.4,5
  3. अर्थात सांख्यों की मूल प्रकृति
  4. गी.7.5
  5. 13.5

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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