गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पाँचवां प्रकरण
कर्मयोग मार्ग का सिद्धांत यह कदापि नहीं, कि कोरा आत्मज्ञान ही इस संसार में परम साध्य वस्तु है; यह तो संन्यास मार्ग का सिद्धान्त है, जो कहता है कि संसार दुःखमय है इसलिये उसको एकदम छोड़ ही देना चाहिये। भिन्न भिन्न मार्गों के इन सिद्धान्तों को एकत्र करके गीता के अर्थ का अनर्थ करना उचित नहीं है। स्मरण रहे, गीता का ही कथन है कि ज्ञान के बिना केवल ऐश्वर्य सिवा आसुरी संपत के और कुछ नहीं है। इसलिये यही सिद्ध होता है; कि ऐश्वर्य के साथ ज्ञान, और ज्ञान के साथ ऐश्वर्य अथवा शान्ति के साथ पुष्टि हमेशा होनी ही चाहिये। ऐसा कहने पर कि ज्ञान के साथ ऐश्वर्य होना अत्यावश्यक है, कर्म करने की आवश्यकता आप ही आप उत्पन्न होती है। क्योंकि मनु का कथन है कि “कर्माणयारभमाणां हि पुरुषं श्रीर्निषेवते ’’ [1]- कर्म करने वाले पुरुष को ही इस जगत में श्री अर्थात ऐश्वर्य मिलता है और प्रत्यक्ष अनुभव से भी यही बात सिद्ध होती है; एवं गीता में जो उपदेश अर्जुन को दिया गया है वह भी ऐसा ही है [2]। इस पर कुछ लोगों का कहना है, कि मोक्ष की दृष्टि से कर्म की आवश्यता न होने के कारण अन्त में अर्थात ज्ञानोत्तर अवस्था में सब कर्मों को छोड़ देना ही चाहिये। परन्तु यहाँ तो केवल सुख-दुःख का विचार करना है, और अब तक मोक्ष तथा कर्म के स्वरूप की परीक्षा भी नहीं की गई है, इसीलिये उक्त आक्षेप का उत्तर यहाँ नहीं दिया जा सकता। आगे नवें तथा दसवें प्रकरण में अध्यात्म और कर्मविपाक का स्पष्ट विवेचन करके ग्यारहवें प्रकरण में बतला दिया जायगा कि यह आक्षेप भी बेसिर-पैर का है। सुख और दुःख दो भिन्न तथा स्वतंत्र वेदनाएं हैं; सुखेच्छा केवल सुखोपभोग से ही तृप्त नहीं हो सकती, इसीलिये संसार में बहुधा दुःख का ही अधिक अनुभव होता है; परन्तु इस दुःख को टालने के लिये तृष्णा या असंतोष और सब कर्मो का भी समूल नाश करना उचित नहीं; उचित यही है कि फलाशा छोड़ कर सब कर्मों को करते रहना चाहिये; केवल विषयोपभोग- सुख कभी पूर्ण होने वाला नहीं- वह अनित्य और पशुधर्म है, अतएव इस संसार में बुद्धिमान मनुष्य का सच्चा ध्येय इस अनित्य पशु-धर्म से ऊंचे दर्जे का होना चाहिये। आत्मबुद्धि-प्रसाद से प्राप्त होने वाला शान्ति-सुख ही वह सच्चा ध्येय है; परन्तु आध्यात्मिक सुख ही यद्यपि इस प्रकार ऊंचे दर्जे का हो, तथापि उसके साथ इस सांसारिक जीवन में ऐहिक वस्तुओं की भी उचित आवश्यकता है; और, इसीलिये सदा निष्काम बुद्धि से प्रयत्न अर्थात कर्म करते ही रहना चाहिये;- इतनी सब बातें जब कर्मयोगशास्त्र के अनुसार सिद्ध हो चुकी, तो अब सुख की दृष्टि से भी विचार करने पर यह बतलाने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, कि आधिभौतिक सुखों को ही परम साध्य मानकर कर्मों के केवल सुख-दुःखात्मक बाह्य परिणामों के तारतम्य से ही नीतिमत्ता का निर्णय करना अनुचित है। कारण यह है, कि जो वस्तु कभी पूर्णावस्था को पहुँच ही नहीं सकती, उसे परम साध्य कहना मानो ‘परम’ शब्द का दुरुपयोग करके मृगजल के स्थान में जल की खोज करना है। जब हमारा परम साध्य ही अनित्य तथा अपूर्ण है, तब उसकी आशा मे बैठे रहने से हमें अनित्य वस्तु को छोड़कर और मिलेगा ही क्या? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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