गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पाँचवां प्रकरण
“धर्मो नित्यः सुख-दुःखे त्वनित्ये’’ इस वचन का मर्म भी यही है। “अधिकांश लोगों का अधिक सुख’’ इस शब्द समूह के सुख शब्द के अर्थ के विषय में आधिभौतिक-वादियों में भी बहुत मतभेद है। उनमें सें बहुतेरों का कहना है कि बहुधा मनुष्य सब विषय-सुखों को लात मार कर केवल सत्य अथवा धर्म के लिये जान देने को तैयार हो जाता है, इससे यह मानना अनुचित है कि मनुष्य की इच्छा सदैव आधिभौतिक सुख- प्राप्ति की ही रहती है। इसलिये उन पंडितों ने यह सूचना की है, कि सुख शब्द के बदले में हित अथवा कल्याण शब्द की योजना करके “अधिकांश लोगों का अधिक सुख’’ इस सूत्र का रूपान्तर “अधिकांश लोगों का अधिक हित या कल्याण’’ कर देना चाहिये। परन्तु, इतना करने पर भी, इस मत में यह दोष बना ही रहता है, कि कर्ता की बुद्धि का कुछ भी विचार नहीं किया जाता। अच्छा, यदि यह कहें कि विषय- सुखों के साथ मानसिक सुखों का भी विचार करना चाहिये, तो उससे आधिभौतिक पक्ष की इस पहली ही प्रतिज्ञा का विरोध हो जाता है- कि किसी भी कर्म की नीतिमत्ता का निर्णय केवल उसके बाह्य परिणामों से ही करना चाहिये- और तब तो किसी न किसी अंश में अध्यात्म-पक्ष को ही स्वीकार करना पड़ता है। जब इस रीति से अध्यात्म-पक्ष को स्वीकार करना ही पड़ता है, तो उसे अधूरा या अंशतः स्वीकार करने से क्या लाभ होगा? इसीलिये हमारे कर्मयोगशास्त्र में यह अंतिम सिद्धान्त निश्चित किया गया है, कि सर्वभूतहित, अधिकांश लोगों का अधिक सुख और मनुष्यत्व का परम उत्कर्ष इत्यादि नीति-निर्णय के सब बाह्य साधनों को अथवा आधिभौतिक मार्ग को गौण या अप्रधान समझना चाहिये और आत्मप्रसाद-रूपी आत्यन्तिक सुख तथा उसी के साथ रहने वाली कर्ता की शुद्ध बुद्धि को ही आध्यात्मिक कसौटी जान कर उसी से कर्म-अकर्म की परीक्षा करनी चाहिये। उन लोगों की बात छोड़ दो, जिन्होंने यह कसम खा ली हो कि हम दृश्य सृष्टि के परे तत्त्वज्ञान में प्रवेश ही न करेंगे। जिन लोगों ने ऐसी कसम खाई नहीं है, उन्हें युक्ति से यह मालूम हो जायगा कि मन और बुद्धि के भी परे जा कर नित्य आत्मा के नित्य कल्याण को ही कर्मयोगशास्त्र में प्रधान मानना चाहिये। कोई कोई भूल से समझ बैठते हैं, कि जहाँ एक बार वेदान्त में घुसे कि बस, फिर सभी कुछ ब्रह्ममय हो जाता है और वहाँ व्यवहार की उपपत्ति का कुछ पता ही नहीं चलता। आज कल जितने वेदान्त-विषयक ग्रंथ पढ़े जाते हैं वे प्रायः संन्यास मार्ग के अनुयायियों के ही लिखे हुए हैं, और संन्यास मार्ग वाले इस तृष्णारूपी संसार के सब व्यवहारों को निःसार समझते हैं, इसलिये उनके ग्रंथों मे कर्मयोग की ठीक ठीक उपपत्ति सचमुच नहीं मिलती। अधिक क्या कहें; इन पर संप्रदाय-असहिष्णु ग्रंथकारों ने संन्यासमार्गीय कोटिकम या युक्तिवाद को कर्मयोग में सम्मिलित कर ऐसा भी प्रयत्न किया है जिससे लोग समझने लगे हैं; कि कर्मयोग और संन्यास दो स्वतंत्र मार्ग नहीं हैं, किंतु संन्यास ही अकेला शास्त्रोक्त मोक्ष मार्ग है। परन्तु यह समझ ठीक नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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