गीता रहस्य -तिलक पृ. 107

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पाँचवां प्रकरण

पशु-धर्म से होने वाले सुख में और मानवी सुख में जो कुछ विशेषता या विलक्षणता है वह यही है; और यह आत्मानन्द केवल बाह्य उपाधियों पर कभी निर्भर न होने के कारण सब सुखों में नित्य, स्वतंत्र और श्रेष्ठ है इसी को गीता में निर्वाण शान्ति कहा है[1] और यही स्थितप्रज्ञों की ब्राह्मी अवस्था की परमावधि का सुख है।[2] अब इस बात का निर्णय हो चुका, कि आत्मा की शान्ति या सुख ही अत्यन्त श्रेष्ठ है और वह आत्मवश होने के कारण सब लोगों को प्राप्य भी हैं परन्तु यह प्रगट है, कि यद्यपि सब धातुओं में सोना अधिक मूल्यवान है, तथापि केवल सोने से ही, लोहा इत्यादि अन्य धातुओं के बिना, जैसे संसार का काम नहीं चल सकता; अथवा जैसे केवल शक्कर से ही, बिना नमक के, काम नहीं चल सकता; उसी तरह आत्मसुख या शान्ति को भी समझना चाहिये। इसमें संदेह नहीं कि इस शान्ति के साथ, शरीर-धारण के लिये ही सही, कुछ सांसारिक वस्तुओं की आवश्यकता है; और इसी अभिप्राय से आशिर्वाद के संकल्प में केवल “शांतिरस्तु’’ न कह कर “शान्तिः पुष्टिस्तुष्टिश्रास्तु’’- शान्ति के साथ पुष्टि और तुष्टि भी चाहिये, कहने की रीति है। यदि शास्त्रकारों की यह समझ होती, कि केवल शांति से ही तृष्टि हो जा सकती है, तो इस संकल्प में ‘पुष्टि’ शब्द को व्यर्थ घुसेड़ देने की कोई आवश्यकता नहीं थी। परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि पुष्टि अर्थात ऐहिक सुखों की वृद्धि के लिये रात दिन हाय हाय करते रहो।

उक्त संकल्प का भावार्थ यही है कि तुम्हें शान्ति, पुष्टि और तृष्टि (सन्तोष) तीनों उचित परिमाण से मिलें और इनकी प्राप्ति के लिये तुम्हें यत्न भी करना चाहिये। कठोरउपनिषद का भी यही तात्पर्य है। नचिकेता जब मृत्यु के अर्थात यम के लोक में गया तब यम ने उससे कहा कि तुम कोई भी तीन वर मांग लो। उस समय नचिकेता ने एकदम यह वर नहीं मांगा, कि मुझे ब्रह्मज्ञान का उपदेश करो; किन्तु उसने कहा कि “मेरे पिता मुझ पर अप्रसन्न हैं इसलिये प्रथम वर आम मुझे यही दीजिये कि वे मुझ पर प्रसन्न हो जावें।’’ अनन्तर उसने दूसरा वर मांगा कि “मुझे आत्मविद्या का उपदेश करो।’’ परन्तु जब यमराज कहने लगे कि इस तीसरे वर के बदले में तुझे और भी अधिक सम्पत्ति देता हूं, तब- अर्थात प्रेय (सुख) की प्राप्ति के लिये आवश्यक यज्ञ आदि कर्मो का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर उसी की अधिक आशा न करके- नचिकेता ने इस बात का आग्रह किया, कि “अब मुझे श्रेय (आत्यन्तिक सुख) की प्राप्ति करा देने वाले ब्रह्मज्ञान का ही उपदेश करो।’’ सारांश यह है कि इस उपनिषद के अंतिम मंत्र मे जो वर्णन है उसके अनुसार ‘ब्रह्मविद्या’ और ‘योगविधि’ (अर्थात् यज्ञ-याग आदि कर्म) दोनों को प्राप्त करके नचिकेता मुक्त हो गया है[3]। इससे ज्ञान और कर्म का समुच्चय ही इस उपनिषद का तात्पर्य मालूम होता है। इसी विषय पर इन्द्र की भी एक कथा है। कौषीतकी उपनिषद में कहा गया है, कि इन्द्र तो स्वयं ब्रह्मज्ञानी था ही, परन्तु उसने प्रतर्दन को भी ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 6.15
  2. गी. 2.71; 6.28; 12; 18.32
  3. कठ. 3.18

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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