गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 331

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य


प्रकृति अपने असली रूप में उन्हीं की आत्मशक्ति है; यह आत्मशक्ति भूतभाव के अनंत मौलिक गुणों को पदार्थों के आंतरिक रूपों में उत्पन्न करती और उन्हें बाह्य रूपों और कार्यों में परिणत करती है। इस आत्मशक्ति का जो असली, गूढ़ और भगवदीय व्यवस्था-क्रम है उसमें सबका और हर किसी का आध्यात्मिक मूल और आत्मस्वरूप ही सर्वप्रथम आता है, यह उसकी गभीर अभेद-स्थिति की एक चीज है; इसके बाद सबका गुण-और-प्रकृतिगत मानस सत्य अपने संपूर्ण सत्यांश के लिये इस आत्मस्वरूपगत अध्यात्मिक सत्य पर निर्भर है; क्योंकि उसके अंदर जो कुछ असली चीज है वह आत्मा से ही आयी है; न्यूनतम आवश्यक तथा सबसे अंत में उत्पन्न यह रूप और कार्य का विषयभूत सत्य प्रकृति के अंतर्गुण से आता और यहाँ इस बहिर्जगत् में जो विविध रूप दीख पड़ते हैं उनके लिये उसी पर निर्भर है। या दूसरे शब्दों में, यह सारा विषयभूत जगत जीवों के विभिन्न भावों के जोड़ का केवल एक व्यक्त रूप है और जीवों के जो विभिन्न भाव हैं वे सदा अपनी अभिव्यक्ति के मूल आध्यात्मिक कारण पर आश्रित रहते हैं।

यह सांत बाह्य भूतभाव भगवत अनंत को व्यक्त करने वाला एक प्राकृत भाव है। प्रकृति गौणतः निम्न प्रकृति है, यह अनंत की जो असंख्य संभावित स्थितियां हैं उनमें से कुछ चुने हुए संघातों का एक गौण है जिसे ‘स्वभाव’ कहते हैं उससे रूप और तेज, कर्म और गति के ये संघात उत्पन्न होते हैं और विश्वगत एकत्व के एक बहुत ही मर्यादित संबंध और पारस्परिक अनुभूति के लिये ही इनकी स्थिति होती है। और इस निम्न, बहिर्भूत और प्रतीयमान व्यवस्थाक्रम में प्रकृति, जो भगवान् के व्यक्त होने की एक शक्ति है, उसका यह रूप तमोवृत वैश्व अज्ञान से उत्पन्न होने वाले विकारों से विकृत हो जाता है और उसका जो कुछ भागवत माहात्म्य या महत्त्व है वह हमारी मानस और प्राणिक अनुभूति या प्रतीति की पार्थिव, पृथग्भूत और अहंभावापन्न यांत्रिक जड़ स्थिति में लुप्त हो जाता है। पर यहाँ इस हालत में भी जो कुछ है, चाहे जन्म या संभूति या प्रवृत्ति हो, सब परम पुरुष परमेश्वर से ही है, एक विकासक्रम है जो परम से निकली हुई प्रकृति के कर्म द्वारा होता रहता है। भगवान् कहते हैं, अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त:सर्व प्रवर्तते[1] अर्थात् ‘‘प्रत्येक पदार्थ का प्रभाव( उत्पत्ति, जन्म ) मैं हूँ और मुझसे ही सब कुछ कर्म और गतिरूप विकास में प्रवृत्त होता है।” यह बात केवल उतने ही के लिये सही नहीं है जो भला है या जिसकी हम लोग प्रशंसा करते हैं अथवा जिसे हम दिव्य कहते हैं, जो प्रकाशमय है, सात्त्विक है, धर्मयुक्त है, शांतिप्रद है, आत्मा को आनंद देने वाला है, जो बुद्धिः, ज्ञानम्, असंमोहः, क्षमा, सत्यम्, दमः, शमः, अहिंसा, समता, तुष्टिः, तपः, दानम्[2] इन शब्दों से सूचित होता है। बल्कि इनके विपरीत जो- जो भाव जिनसे मनुष्य का मर्त्य बन मोहित होता और अज्ञान और घबराहट में जा गिरता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10.8
  2. 104-5

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