गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य
यह सांत बाह्य भूतभाव भगवत अनंत को व्यक्त करने वाला एक प्राकृत भाव है। प्रकृति गौणतः निम्न प्रकृति है, यह अनंत की जो असंख्य संभावित स्थितियां हैं उनमें से कुछ चुने हुए संघातों का एक गौण है जिसे ‘स्वभाव’ कहते हैं उससे रूप और तेज, कर्म और गति के ये संघात उत्पन्न होते हैं और विश्वगत एकत्व के एक बहुत ही मर्यादित संबंध और पारस्परिक अनुभूति के लिये ही इनकी स्थिति होती है। और इस निम्न, बहिर्भूत और प्रतीयमान व्यवस्थाक्रम में प्रकृति, जो भगवान् के व्यक्त होने की एक शक्ति है, उसका यह रूप तमोवृत वैश्व अज्ञान से उत्पन्न होने वाले विकारों से विकृत हो जाता है और उसका जो कुछ भागवत माहात्म्य या महत्त्व है वह हमारी मानस और प्राणिक अनुभूति या प्रतीति की पार्थिव, पृथग्भूत और अहंभावापन्न यांत्रिक जड़ स्थिति में लुप्त हो जाता है। पर यहाँ इस हालत में भी जो कुछ है, चाहे जन्म या संभूति या प्रवृत्ति हो, सब परम पुरुष परमेश्वर से ही है, एक विकासक्रम है जो परम से निकली हुई प्रकृति के कर्म द्वारा होता रहता है। भगवान् कहते हैं, अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त:सर्व प्रवर्तते।[1] अर्थात् ‘‘प्रत्येक पदार्थ का प्रभाव( उत्पत्ति, जन्म ) मैं हूँ और मुझसे ही सब कुछ कर्म और गतिरूप विकास में प्रवृत्त होता है।” यह बात केवल उतने ही के लिये सही नहीं है जो भला है या जिसकी हम लोग प्रशंसा करते हैं अथवा जिसे हम दिव्य कहते हैं, जो प्रकाशमय है, सात्त्विक है, धर्मयुक्त है, शांतिप्रद है, आत्मा को आनंद देने वाला है, जो बुद्धिः, ज्ञानम्, असंमोहः, क्षमा, सत्यम्, दमः, शमः, अहिंसा, समता, तुष्टिः, तपः, दानम्[2] इन शब्दों से सूचित होता है। बल्कि इनके विपरीत जो- जो भाव जिनसे मनुष्य का मर्त्य बन मोहित होता और अज्ञान और घबराहट में जा गिरता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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