कहि न जाय मुख सौं कछू स्याम-प्रेम की बात।
नभ, जल, थल, चर-अचर-सब स्याम-हि-स्याम लखात॥35॥
ब्रह्मा नहीं, माया नहीं, नहीं जीव, नहिं काल।
अपनीहू सुधि ना रही, रह्यौ एक नँदलाल॥36॥
को कासौं केहि बिधि कहा कहै हृदय की बात।
हरि हेरत हिय हरि गयौ, हरि सर्बत्र लखात॥37॥
प्रेम-बान बेध्यौ हियौ, घायल भयौ अचेत।
एक राम में रमि गयौ, दुर्यौ बिषय कौ खेत॥38॥
प्रेम-पयोनिधि परत हीं पबि-सम भयौ सरीर।
काम-कटक भाज्यौ सबै, तजि निज तरकस-तीर॥39॥
रँग्यौ सदा जाकौ हियौ, बिमल स्याम-अनुराग।
दूजौ रँग कबहुँ न चढ़ै, भयौ सहज बैराग॥40॥
मोहन की मधुरी हँसी, बसी हृदय में जाय।
माया-ममता-अघ अनल तेहि हिय नाहिं समाय॥41॥
जिन कौ हिय नित हँसि रह्यौ, हेरि-हेरि हरिरूप।
कबहूँ ते न पलटि परैं सोकरूप भवकूप॥42॥
जिन के दृग हेरत सदा हरि-मूरति चहुँ ओर।
तिन के चित कबहुँ न बसत काम-मोह-मद चोर॥43॥