कहने लगे राधिका से फिर कर अभिनन्दन आदर-मान।
”हरिने भेजा मुझे आपको देने यह संदेश महान॥
गये साथ अक्रूर चचा के मथुरा कंस-यजके हेतु।
राज-रजक बधकर पहने सब नूतन वसन, उड़ा यश-केतु॥
धनुष-भङ्ग कर, मारे मुष्टिक तथा मल्ल-चाणूर विशाल।
गज कुवलया कदनकर, मारे मामा कंस वीर विकराल॥
माता-पिता देवकीजी-वसुदेव हुए फिर कारामुक्त।
प्रणत हुए उनके श्रीचरणों में हरि आदर-श्रद्धायुक्त॥
उग्रसेनका किया कृष्ण ने फिर सिंहासन पर अभिषेक।
त्राण किया द्विज-साधुवर्गका, रखी धर्मकी पावन टेक॥
अज, अविनाशी, अखिल भुवनपति, ब्रह्म परात्पर सर्वाधार।
दुष्कृत-नाश, साधु-संरक्षण-हित लेकर मानव अवतार॥
करते धर्म-स्थापना वे, पर रहते सदा स्वमहिमा-लीन।
चिदानन्दघन घट-घटवासी सम माया-ममतासे हीन॥
कहलाया है-’मोह त्याग कर करो निरन्तर मनमें ध्यान।
ब्रह्म रूपका जो व्यापक निर्गुण निरुपाधि नित्य निर्मान’॥”
सोरठा
सुन उद्धवकी बात विस्मय-विथकित राधिका।
हर्ष-प्रफुल्लित गात बोलीं-मधुर सरल वचन॥