गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पाँचवां प्रकरण
ब्राहाण-धर्म में सन्तोष एक गुण बतलाया गया है सही; परन्तु उसका अर्थ केवल यही है कि वह चातुर्वरार्य- धर्मानुसार द्रव्य और ऐहिक ऐश्वर्य के विषय में सन्तोष रखे। यदि कोई ब्राह्मण कहने लगे कि मुझे जितना ज्ञान प्राप्त हो चुका है उसी से मुझे सन्तोष है, तो वह स्वयं अपना नाश कर बैठेगा। इसी तरह यदि कोई वैश्य या शूद्र स्वधर्मानुसार प्राप्त स्थिति में ही सदा संतुष्ट बना रहे तो उसकी भी वही दुर्दशा होगी। सारांश यह है कि असन्तोष सब भावी उत्कर्ष का, प्रयत्न का, ऐश्वर्य का और मोक्ष का भी बीज है। हमें इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिये कि यदि हम इस असन्तोष का पूर्णतया नाश कर डालेंगे, तो इस लोक और परलोक में भी हमारी दुर्गति होगी। श्रीकृष्ण का उपदेश सुनते समय जब अर्जुन ने कहा कि “भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृणवतो नास्ति मेअमृतम्’’ [1]अर्थात आप के अमृततुल्य भाषण को सुन कर मेरी तृप्ति होती ही नहीं, इसलिये आप फिर भी अपनी विभूतियों का वर्णन कीजिये- तब भगवान ने फिर से अपनी विभूतियों का वर्णन आरम्भ किया; उन्होंने ऐसा नहीं कहा, कि तू अपनी इच्छा को वश में कर, असंतोष या अतृप्ति अच्छी बात नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि योग्य और कल्याणकारक बातों में उचित असन्तोष का होना भगवान को भी इष्ट है। भर्तृहरि का भी इसी आशय का एक श्लोक है, यथा “यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ’’ अर्थात रुचि या इच्छा अवश्य होनी चाहिये, परन्तु वह यश के लिये हो; और व्यसन भी होना चाहिये, परन्तु वह विद्या का हो, अन्य बातों का नहीं। काम-क्रोध आदि विकारों के समान ही असन्तोष को भी अनिवार्य नहीं होने देना चाहिये; यदि वह अनिवार्य हो जायगा तो निस्संदेह हमारे सर्वस्व का नाश कर डालेगा। इसी हेतु से, केवल विषयोपभोग की प्रीति के लिये तृष्णा पर तृष्णा लादकर और एक आशा के बाद दूसरी आशा रख कर सांसारिक सुखों के पीछे हमेशा भटकने वाले पुरुषों की सम्पति को, गीता के सोलहवें अध्याय में, “आसुरी संपत्ति’’ कहा है। ऐसी रात दिन की हाय हाय करते रहने से मनुष्य के मन की सात्त्विक वृतियों का नाश हो जाता है, उसकी अधोगति होती है, और तृष्णा की पूरी तृप्ति होना असंभव होने के कारण कामोपभोग-वासना नित्य अधिकाधिक बढ़ती जाती है तथा वह मनुष्य अन्त में उसी दशा में मर जाता है। परंतु, विपरीत पक्ष में तृष्णा और असंतोष के इस दुष्परिणाम से बचने के लिये सब प्रकार की तृष्णाओं के साथ सब कर्मों को एक दम छोड़ देना भी सात्त्विक मार्ग नहीं है। उक्त कथनानुसार तृष्णा या असंतोष भावी उत्कर्ष का बीज है; इसलिये चोर के डर से साह को ही मार डालने का प्रयत्न कभी नहीं करना चाहिये। उचित मार्ग तो यही है कि हम इस बात का भली-भाँति विचार किया करें कि किस तृष्णा या किस असंतोष से हमें दुःख होगा; और जो विशिष्टआशा, तृष्णा या असन्तोष दुःखकारक हो उसे छोड़ दें। उनके लिये समस्त कर्मों को छोड़ देना उचित नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी. 10.18
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