गीता रहस्य -तिलक पृ. 93

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पाँचवां प्रकरण

जो पश्चिमी पंडित आधिभौतिक सुख को ही परम साध्य मानते हैं, उनमे से बहुतेरों का कहना है, कि यदि संसार में सुख से दुःख ही अधिक होता तो, (सब नहीं तो) अधिकांश लोग अवश्य ही आत्महत्या कर डालते; क्यांकि जब उन्हें मालूम हो जाता कि संसार दुःखमय है तो वे फिर उसमें रहने की झंझट में क्यों पड़ते? बहुधा देखा जाता कि मनुष्य अपनी आयु अर्थात जीवन से नहीं उबता; इसलिये निश्चयपूर्वक यही अनुमान किया जा सकता है कि इस संसार मे मनुष्य को दुःख की अपेक्षा सुख ही अधिक मिलता है; और इसीलिये धर्म-अधर्म का निर्णय भी सुख को ही सब लोगों का परम साध्य समझ कर किया जाना चाहिये। अब यदि उपर्युक्त मत की अच्छी तरह जांच की जाये तो मालूम हो जायगा, कि यहाँ आत्महत्या का जो सम्बंध सांसारिक सुख के साथ जोड़ दिया गया है वह वस्तुतः सत्य नहीं है। हां, यह बात सच है कि कभी कभी कोई मनुष्य संसार से त्रस्त हो कर आत्महत्या कर डालता है; परन्तु सब लोग उसकी गणना ‘अपवाद’ में अर्थात पागलों में किया करते हैं।

इससे यही बोध होता है कि सर्व साधारण लोग भी ‘आत्महत्या करने या न करने’ का संबंध सांसारिक सुख के साथ नहीं जोड़ते, किंतु वे उसे (अर्थात आत्महत्या करने या न करने को) एक स्वतंत्र बात समझते हैं। यदि असभ्य और जंगली मनुष्यों के उस ‘संसार’ या जीवन का विचार किया जावे, जो सुधरे हुए और सभ्य मनुष्यों की दृष्टि से अत्यंत कष्टदायक और दुःखमय प्रतीत होता है, तो भी वही अनुमान निष्पन्न होगा जिसका उल्लेख ऊपर के वाक्य में किया गया है। प्रसिद्ध सृष्टिशास्त्र चार्ल्‍स डार्विन ने अपने प्रवास- ग्रंथ में कुछ ऐसे जंगली लोगों का वर्णन किया है जिन्हें उसने दक्षिण- अमेरिका के अत्यन्त दक्षिण प्रान्तों में देखा था। उस वर्णन में लिखा है, कि ये असभ्य लोग- स्त्री पुरुष सब के सब कठिन जाड़े के दिनों में भी नंगे घूमते रहते हैं; इनके पास अनाज का कुछ भी संग्रह न रहने से इन्हें कभी कभी भूखों मरना पड़ता है; तथापि इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जाती है![1]

देखिये जंगली मनुष्य भी अपनी जान नहीं देते, परंतु क्या इससे यह अनुमान किया जा सकता है, कि उनका संसार या जीवन सुखमय है कदापि नहीं। यह बात सच है कि वे आत्महत्या नहीं करते; परंतु इसके कारण का यदि सूक्ष्म विचार किया जावे तो मालूम होगा, कि हर एक मनुष्य को- चाहे वह सभ्य हो या असभ्य-केवल इसी बात में अत्यंत आनंद मालूम होता है कि “मैं पशु नहीं हूँ, मनुष्य हूँ’’; और अन्य सब सुखों की अपेक्षा मनुष्य होने के सुख को वह इतना अधिक महत्त्वपूर्ण समझता है, कि यह संसार कितना भी कष्टमय क्यों न हो, तथापि वह उसकी ओर ध्यान नहीं देता और न वह अपने इस मनुष्यत्व के दुर्लभ सुख को खो देने के लिये कभी तैयार रहता है। मनुष्य की बात तो दूर रही; पशु-पक्षी भी आत्महत्या नहीं करते। तो, क्या इससे हम यह कह सकते हैं, कि उनका भी संसार या जीवन सुखमय है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. Darwin’s Naturanst’s Voyage round the world, Chap. 10.

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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