गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
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पाँचवां प्रकरण
तात्पर्य यह है कि ‘मनुष्य या पशु-पक्षी आत्महत्या नहीं करते’ इस बात से यह भ्रामक अनुमान नहीं करना चाहिये कि उनका जीवन सुखमय है। सच्चा अनुमान यही हो सकता है कि, संसार कैसा ही हो, उसकी कुछ अपेक्षा नहीं; सिर्फ अचेतन अर्थात् जड़ अवस्था से अचेतन यानि सजीव अवस्था में आने ही से अनुपम आनंद मिलता है, और उसमें भी मनुष्यत्व का आनंद तो सब से श्रेष्ठ है। हमारे शास्त्रकारों ने भी कहा हैः- भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीविनः । बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा नरेषु ब्राह्मणा: स्मृताः ।। ब्राहाणेषु च विद्वांसः विद्वत्सु कृतबुद्वयः । कृतबुद्धिषु कर्तारः कर्तृषु ब्रह्मवादिनः ।। अर्थात् “अचेतन पदार्थो की अपेक्षा सचेतन प्राणी श्रेष्ठ है, सचेतन प्राणियों में बुद्धिमान, बुद्धिमानों में मनुष्य, मनुष्यों में ब्राह्मण, ब्राह्मणों में विद्वान, विद्वानों में कृतबुद्धि (वे मनुष्य जिनकी बुद्धि सुसंस्कृत हो), कृतबुद्धियों में कर्ता (काम करने वाले), और कर्त्ताओं में ब्रह्मवादी श्रेष्ठ हैं ।’’ इस प्रकार शास्त्रों[1] में एक से दूसरी बढ़ी हुई श्रेणियों का जो वर्णन है, उसका भी रहस्य वही है जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है; और उसी न्याय से भाषा-ग्रंथों में भी कहा गया है कि चौरासी लाख योनियों में नरदेह श्रेष्ठ है, नरों में मुमुक्षु श्रेष्ठ है, और मुमुक्षुओं में सिद्ध श्रेष्ठ है। संसार में जो यह कहावत प्रचलित है कि “सब से अपनी जान अधिक प्यारी होती है’’ उसका भी कारण वही है जो ऊपर लिखा गया है ; और इसीलिये संसार के दुःखमय होने पर भी जब कोई मनुष्य आत्महत्या करता है तो उसको लोग पागल कहते हैं और धर्मशास्त्र के अनुसार वह पापी समझा जाता है[2]; तथा आत्महत्या का प्रयत्न भी कानून के अनुसार जुर्म माना जाता है। संक्षेप में यह सिद्ध हो गया कि ‘मनुष्य आत्महत्या नहीं करता’ इस बात से संसार के सुखमय होने का अनुमान करना उचित नहीं है। ऐसी अवस्था में हम को, ‘यह संसार सुखमय है या दुःखमय?’ इस प्रश्न का निर्णय करने के लिये, पूर्वकर्मानुसार नरदेह- प्राप्ति-रूप अपने नैसर्गिक भाग्य की बात को छोड़ कर, केवल इसके पश्चात् की अर्थात इस संसार ही की बातों का विचार करना चाहिये।’ मनुष्य आत्महत्या नहीं करता, बल्कि वह जीने की इच्छा करता रहता है ‘यह तो सिर्फ संसार की प्रवृति का कारण है; आधिभौतिक पंडितों के कथनानुसार, संसार के सुखमय होने का, यह कोई सुबूत या प्रमाण नहीं है। यह बात इस प्रकार कही जा सकती है कि, आत्महत्या न करने की बुद्धि स्वाभाविक है, वह कुछ संसार के सुख-दुःखों के तारतम्य से उत्पन्न नहीं हुई है ; और, इसीलिये, इससे यह सिद्ध हो नहीं सकता कि संसार सुखमय है। केवल मनुष्य-जन्म पाने के सौभाग्य को और (उसके बाद) के मनुष्य के सांसारिक व्यवहार या ‘जीवन’ को भ्रमवश एक ही नहीं समझ लेना चाहिये; केवल मनुष्यत्व और मनुष्य के नित्य व्यवहार अथवा सांसारिक जीवन के दोनों भिन्न भिन्न बातें है; इस भेद को ध्यान में रख कर यह निश्चय करना है कि, इस संसार में श्रेष्ठ नरदेह- धारी प्राणी के लिये सुख अधिक है अथवा दुःख? इस प्रश्न का यथार्थ निर्णय करने के लिये, केवल यही सोचना एकमात्र साधन या उपाय है, कि प्रत्येक मनुष्य के “वर्तमान समय की” वासनाओं में से कितनी वासनाएं सफल हुई और कितनी निष्फल। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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