गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पाँचवां प्रकरण
सच है; यदि सुख कोई स्वतंत्र वस्तु ही नहीं है, जो कुछ है सो दुःख ही है, और वह भी तृष्णामूलक है ; तो इन तृष्णा आदि विकारों को ही पहले समूल नष्ट कर देने पर फिर स्वार्थ और परार्थ की सारी झंझट आप ही आप दूर हो जायगी, और तब मन की जो मूल- साम्यावस्था तथा शान्ति है वही रह जायगी। इसी अभिप्राय से महाभारतान्तर्गत शान्तिपर्व की पिंगलगीता में, और मंकिगीता में भी, कहा गया है किः- यश्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत् सुखम् । तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः शोडर्षी कलाम् ।। “सांसारिक काम अर्थात् वासना की तृप्ति होने से जो सुख होता है और जो सुख स्वर्ग में मिलता है, उन दोनों सुखों की योग्यता, तृष्णा के क्षय से होने वाले सुख के सोलहवें हिस्से के बराबर भी नहीं है’’[1]। वैदिक संन्यासमार्ग का ही, आगे चलकर, जैन और बौद्धधर्म में अनुकरण किया गया है। इसीलिये इन दोनों धर्मों के ग्रंथों में तृष्णा के दुष्परिणामों का और उसकी[2]त्याज्यता का वर्णन, उपर्युक्त वर्णन ही के समान और कहीं कहीं तो उससे भी बढ़ा चढ़ा किया गया है[3]। तिब्बत के बौद्ध धर्मग्रंथों में तो यहाँ तक कहा गया है कि महाभारत का उक्त श्लोक, बुद्धत्व प्राप्त होने पर गौतम बुद्ध के मुख से निकला था[4] तृष्णा के जो दुष्परिणाम ऊपर बतलाये गये हैं वे श्रीमद्भगवद्गीता को भी मान्य है। परन्तु गीता का यह सिद्धान्त है कि उन्हें दूर करने के लिये कर्म ही का त्याग नहीं कर बैठना चाहिये। अतएव यहाँ सुख-दुःख की उक्त उपपत्ति पर कुछ सूक्ष्म विचार करना आवश्यकहै। संन्यासमार्ग के लोगों का यह कथन सर्वथा सत्य नहीं माना जा सकता, कि सब सुख तृष्णा आदि दुःखों के निवारण होने पर ही उत्पन्न होता है। एक बार अनुभव की हुई (देखी हुई, सुनी हुई, इत्यादि) वस्तु की जब फिर चाह होती है तब उसे काम, वासना या इच्छा कहते है। जब इच्छित वस्तु जल्दी नहीं मिलती तब दुःख होता है; और जब वह इच्छा तीव्र होने लगती है, अथवा जब इच्छित वस्तु के मिलने पर भी पूरा सुख नहीं मिलता और उसकी चाह अधिकाधिक बढ़ने लगती है, तब उसी इच्छा को तृष्णा कहते हैं। परन्तु इस प्रकार केवल इच्छा के, तृष्णा-स्वरूप में, बदल जाने के पहले ही, यदि वह इच्छा पूर्ण हो जाय, तो उससे होने वाले सुख के बारे में हम यह नहीं कह सकेंगे कि वह तृष्णा- दुःख के क्षय होने से उत्पन्न हुआ है। उदाहरणार्थ, प्रतिदिन नियत समय पर जो भोजन मिलता है, उसके बारे में यह अनुभव नहीं है कि भोजन करने के पहले हमें दुःख ही होता हो। जब नियत समय पर भोजन नहीं मिलता तभी हमारा जी भूख से व्याकुल हो जाया करता है- अन्यथा नहीं। अच्छा, यदि हम मान लें कि तृष्णा और इच्छा एक ही अर्थ के द्योतक शब्द हैं, तो भी यह सिद्धांत सच नहीं माना जा सकता कि सब सुख तृष्णामूलक ही हैं। उदाहरण के लिये, एक छोटे बच्चे के मुंह में अचानक एक मिश्री की डली डाल दो; तो क्या यह कहा जा सकेगा कि उस बच्चे को मिश्री खाने से जो सुख हुआ वह पूर्व तृष्णा के क्षय से हुआ है? नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शा.174.48; 177.49
- ↑ गीता रहस्य. 13
- ↑ उदाहरणार्थ, धम्मपद के तृष्णा वर्ग को देखिये
- ↑ Rockhill’s Life of Buadha, p. 33. यहश्लोक 'उदाने’ नामक पाली ग्रंथ (2.2) में है। परन्तु उसमें ऐसा वर्णन नहीं है कि यह श्लोक बुद्ध के मुख से, उसे ‘बुद्धत्व’ प्राप्त होने के समय, निकला था। इससे यह साफ मालूम हो जाता है कि यह ठीक पहले पहल बुद्ध के मुख से नहीं निकला था।
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