गीता रहस्य -तिलक पृ. 88

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पाँचवां प्रकरण

इत्यादि। और जब हम इन प्रश्नों पर विचार करने लगते हैं, तब तब से पहले यही प्रश्न उठता है कि, नैय्यायिकों के बतलाये हुए लक्षण के अनुसार सुख और दुःख दोनों भिन्न भिन्न स्वतंत्र वेदनाएं, अनुभव या वस्तु हैं अथवा ‘जो उजेला नहीं वह अंधेरा’’ इस न्याय के अनुसार इन दोनों वेदनाओं में से एक का अभाव होने पर दूसरी संज्ञा का उपयोग किया जाता हैं भर्तृहरि ने कहा है कि ‘प्यास से जब मुँह सूख जाता है तब हम उस दुःख का निवारण करने के लिये पानी पीते हैं, भूख से जब हम व्याकुल हो जाते हैं तब मिष्ठान्न खाकर उस व्यथा को हटाते है और काम-वासना के प्रदीप्त होने पर उसको स्त्रीसंग द्वारा तृप्त करते हैं’’- इतना कह कर अन्त में कहा है किः-

प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ।

“किसी व्याधि अथवा दुःख के होने पर उसका जो निवारण या प्रतिकार किया जाता है उसी को लोग भ्रमवश ‘सुख’ कहा करते है’’ दुःख-निवारण के अतिरिक्त ‘सुख’ कोई भिन्न वस्तु नहीं है। यह नहीं समझना चाहिये कि उक्त सिद्धान्त मनुष्यों के सिर्फ उन्हीं व्यवहारों के विषय में उपयुक्त होता है जो स्वार्थ ही के लिये किये जाते हैं। पिछले प्रकरण में आनन्द गिरि का यह मत बतलाया ही गया है कि, जब हम किसी पर कुछ उपकार करते हैं तब उसका कारण यही होता है कि, उसके दुःख को देखने से हमारी कारुणय वृति हमारे लिये असह्य हो जाती है। और उस दुःसहत्व की व्यथा को दूर करने के लिये ही हम परोपकार किया करते हैं। इस पक्ष के स्वीकृत करने पर हमें महाभारत के अनुसार यह मानना पड़ेगा किः-

तृष्णार्तिप्रभवं दुःखं दुःखार्तिप्रभवं सुखम् ।।

“पहले जब कोई तृष्णा उत्पन्न होती है तब उसकी पीड़ा से दुःख होता है और उस दुःख की पीड़ा से फिर सुख उत्पन्न होता है’’ [1]। संक्षेप में इस पंथ का यह कहना है कि, मनुष्य के मन में पहले एक-आध आशा, वासना या तृष्णा उत्पन्न होती है; और जब उससे दुःख होने लगे तब उस दुःख का जो निवारण किया जावे, वही सुख कहलाता है; सुख कोई दूसरी भिन्न वस्तु नहीं है। अधिक क्या कहें, इस पन्थ के लोगों ने यह भी अनुमान निकाला है कि, मनुष्य की सब सांसारिक प्रवृतियां केवल वासनात्मक और तृष्णात्मक ही है; जब तक सब सांसारिक कर्मो का त्याग नहीं किया जायेगा तब तक वासना या तृष्णा की जड़ उखड़ नहीं सकती; और जब तक तृष्णा या वासना की जड़ नष्ट नहीं हो जाती तब तक सत्य और नित्य सुख का मिलना भी सम्भव नहीं है। वृहदारणयक [2]में विकल्प से और जाबाल-संन्यास आदि उपनिषदों में प्रधानता से उसी मार्ग का प्रतिपादन किया गया है; तथा अष्टावक्रगीता [3] एवं अवधूतगीता [4] में इसी का अनुवाद है। इस पंथ का अन्तिम सिद्धांत यही है कि, जिस किसी को आत्यन्तिक सुख या मोक्ष प्राप्त करना है उसे उचित है कि वह जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी संसार को छोड़ कर संन्यास ले ले। स्मृतिग्रंथों में जिसका वर्णन किया गया है और श्रीशंकाराचार्य ने कलियुग में जिसकी स्थापना की है, वह श्रौत- स्मार्त्त कर्म- संन्यासमार्ग इसी तत्त्व पर चलाया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शा. 25.22; 174.19
  2. वृ. 4.4.22; वेसू. 3.4.15.
  3. 9.8;10.3-8
  4. 3.46

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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