गीता रहस्य -तिलक पृ. 80

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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चौथा प्रकरण

ह्यूम[1] ने स्पष्ट लिखा है- जबकि मनुष्य का कर्म (काम या कार्य) ही उसके शील का द्योतक है और इसी लिये जब लोगों में वही नीतिमत्‍ता का दर्शक भी माना जाता है, तब केवल बाह्य परिणामों ही से उस कर्म को प्रशंसनीय या गर्हणीय मान लेना असम्भव है। यह बात मिल साहब को भी मान्य है कि “किसी कर्म की नीतिमत्ता कर्ता के हेतु पर, अर्थात वह उसे जिस बुद्धि या भाव से करता है उस पर, पूर्णतया अवलम्बित रहती है।’’ परन्तु अपने पक्ष के मंडन के लिये मिल साहब ने यह युक्ति भिड़ाई है कि “जब तक बाह्य कर्मों में कोई भेद नहीं होता तब तक कर्म की नीतिमत्ता में कुछ भी फर्क नहीं हो सकता, चाहे कर्ता के मन में उस काम को करने की वासना किसी भी भाव से हुई हो’’[2]मिल की इस युक्ति में साम्प्रदायिक आग्रह देख पड़ता है; क्योंकि बुद्धि या भाव मे भिन्नता होने के कारण, यद्यपि दो कर्म दिखने में एक ही से हों तो भी, वे तत्त्वतः एक ही योग्यता के कभी हो नहीं सकते ।

और, इसीलिये, मिल साहब की कही हुई “तब तक (बाह्य) कर्मो में भेद नहीं होता, इत्यादि’’ मर्यादा को ग्रीन साहब[3] निर्मूल बतलाते हैं। गीता का भी यही अभिप्राय है। मनुष्य बराबर बराबर धन प्रदान करें तो भी- अर्थात दोनों के बाह्य कर्म एक समान होने पर भी- दोनों की बुद्धि या भाव की भिन्नता विषय पर अधिक विचार, पूर्वी और पश्चिमी मतों की तुलना करते समय करेंगे। अभी केवल इतना ही देखना है कि कर्म के केवल बाहरी परिणाम पर ही अब-लंबित रहने के कारण, आधिभौतिक सुख-वाद की श्रेष्ठ श्रेणी भी, नीति-निर्णय के काम में कैसी अपूर्ण सिद्ध हो जाती है; और, इसे सिद्ध करने के लिये, हमारी समझ में, मिल साहब की उक्त युक्ति ही काफी है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. “For as actions are objects of our moral sentiment, so far only as they are indications of the internal character, passions and affections, it is impossible that they can give rise either to praise or blame, where they proceed not from these principles, but are derived altogether from external objects.”Hume’s Inquiry concerning Human Understanding, Section 8. Part II. ( P. 368 of Hume’s Essays, The World Library Edition).
  2. “Morality of the action depends entirely upon the intention, that is, upon what the agent wills to do. But the motive, that is, the feeling which makes him will so to do, when it makes no differences in the act, makes none in the morality.” Mill’s Utilitarianism, p. 27.
  3. Green’s Prolegomena to Ethics, ₰292 note. P. 348.5th Cheaper Edition.

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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