गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौथा प्रकरण
केवल संख्या की दृष्टि से नीति का उचित निर्णय नहीं हो सकता, और इस बात का निश्चय करने के लिये कोई भी बाहरी साधन नहीं है कि अधिकांश लोगों का अधिक सुख किसमें है? इन दो आक्षेपों के सिवा इस पंथ पर और भी बड़े बड़े आक्षेप किये जा सकते हैं जैसे, विचार करने पर यह आप ही मालूम हो जायगा कि किसी काम के केवल बाहरी परिणाम से ही उसको न्याय अथवा अन्याय कहना बहुधा असंभव हो जाता है। हम लोग किसी घड़ी को, उसके ठीक ठीक समय न बतलाने पर, अच्छी या खराब कहा करते हैं; परन्तु इसी नीति का उपयोग मनुष्य के कार्यों के संबंध में करने के पहले हमें यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये कि मनुष्य, घड़ी के समान, कोई यंत्र नहीं है। यह बात सच है कि सब सत्पुरुष जगत के कल्याणार्थ प्रयत्न किया करते हैं; परन्तु इससे यह उलटा अनुमान निश्चयपूर्वक नहीं किया जा सकता कि जो कोई लोक-कल्याण के लिये प्रयत्न करता है, वह प्रत्येक साधु ही है। यह भी देखना चाहिये कि मनुष्य का अंतः करण कैसा है यंत्र और मनुष्य में यदि कुछ भेद है तो यही कि एक हृदयहीन है और दूसर हदययुक्त है; और इसीलिये अज्ञान से या भूल से किये गये अपराध को कायदे मे क्षम्य मानते हैं। तात्पर्य; कोई काम अच्छा है या बुरा, धर्म्य है या अधर्म्य, नीति का है अथवा अनीति का, इत्यादि बातों का सच्चा निर्णय उस काम के केवल बाहरी फल या परिणाम- अर्थात वह अधिकांश लोगों को अधिक सुख देगा कि नहीं इतने ही- से नहीं किया जा सकता। उसी के साथ साथ यह भी जानना चाहिये कि उस काम को करने वाले की बुद्धि, वासना या हेतु कैसा है। एक समय की बात है कि अमेरिका के एक बड़े शहर में, सब लोगों के सुख और उपयोग के लिये, ट्रामवे की बहुत आवश्यकता थी। सरकारी मंजूरी मिलने में बहुत देरी हुई। तब ट्रामवे नहीं बनाई जा सकती थी। सरकारी मंजूरी मिलने में बहुत देरी हुई। तब ट्रामवे बन गई और उससे शहर के सब लोगों को सुभीता और फायदा हुआ। कुछ दिनों के बाद रिशवत की बात प्रगट हो गई और उस व्यावस्थापक पर फौजदारी मुकदमा चलाया गया। पहली ज्यूरी (पंचायत) का एकमत नहीं हुआ इसीलिये दूसरी ज्यूरी चुनी गई। दूसरी ज्यूरी ने व्यवस्थापक को दोषी ठहराया, अतएव उसे सजा दी गई। इस उदाहरण में अधिक लोगों के अधिक सुखवाले नीतितत्त्व से काम चलने का नहीं। क्योंकि, यद्यपि ‘घूस देने से ट्रामवे बन गई’ यह बाहरी परिणाम अधिक लोगों को अधिक सुखदायक था, तथापि इतने ही से घूस देना न्याय हो नहीं सकता[1]। दान करने को अपना धर्म (दातव्यं) समझ कर निष्काम बुद्धि से दान करना, और कीर्ति के लिये तथा अन्य फल की आशा से दान करना, इन दो कृत्यों का बाहरी परिणाम यद्यपि एकसा हो, तथापि श्रीमद्भगवद्गीता में पहले दान को सात्त्विक और दूसरे को राजस कहा है [2]। और,यह भी कहा गया है कि यदि वही दान कुपात्रों को दिया जाय तो वह तामस अथवा गर्ह्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह उदाहरण डाक्टर पॉल केरस की The Ethical Problem (pp.’ 58,59,2nd Ed.) नामक पुस्तक से लिया गया है।
- ↑ गी. 17.20,21
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