गीता रहस्य -तिलक पृ. 77

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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चौथा प्रकरण

भारतीय युद्ध ही की बात कौन कहे, और भी अनेक अवसर ऐसे हैं कि जहाँ नीति का निर्णय केवल संख्या से कर बैठना बड़ी भारी भूल है। व्यवहार में सब लोग यही समझते हैं कि लाखों दुर्जनों को सुख होने की अपेक्षा एक ही सज्जन को जिससे सुख हो, वही सच्चा सत्कार्य है। इस समझ को सच बतलाने के लिये एक ही सज्जन के सुख को लाख दुर्जनों के सुख की अपेक्षा अधिक मूल्यवान मानना पड़ेगा; और ऐसा करने पर “अधिकांश लोगों का अधिक बाह्य सुखवाला’’ जोकि नीतिमत्ता की परीक्षा का एकमात्र साधन माना गया है पहला सिद्धांत उतना ही शिथिल हो जायगा। इसलिये कहना पड़ता है कि लोक-संख्या की न्यूनाधिकता का, नीतिमत्ता के साथ, कोई नित्य- संबंध नहीं हो सकता। दूसरी यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि कभी कभी जो बात साधारण लोगों को सुखदायक मालूम होती है, वही बात किसी दूरदर्शीपुरुष को परिणाम में सब के लिये हानिप्रद देख पड़ती है। उदाहरणार्थ, साक्रेटीज और ईसामसीह को ही लीजिये। दोनों अपने अपने मत को परिणाम में कल्याणकारक समझ कर ही अपने देशबंधुओं को उसका उपदेश करते थे। परन्तु इनके देशबंधुओं ने इन्हें “समाज के शत्रु’’ समझ कर मौत की सजा दी।

इस विषय में “अधिकांश लोगों का अधिक सुख’’ इसी तत्त्व के अनुसार उस समय के लोगों ने और उनके नेताओं ने मिलकर आचरण किया था; परन्तु अब इस समय हम यह नहीं कह सकते कि उन लोगों का बर्ताव न्याययुक्त था। सारांश, यदि “अधिकांश लोगों के अधिक सुख’’ को ही क्षण भर के लिये नीति का मूलतत्त्व मान लें तो भी उससे ये प्रश्न हल नहीं हो सकते कि लाखों-करोड़ों मनुष्यों का सुख किसमें है, उसका निर्णय कौन और कैसे करे साधारण अवसरों पर निर्णय करने का यह काम उन्हीं लोगों को सौंप दिया जा सकता है कि जिनके बारे में सुख-दुःख का प्रश्न उपस्थित हो। परन्तु साधारण अवसर में इतना प्रयत्न करने की कोई आवश्‍यकता ही नहीं रहती; और जब विशेष कठिनाई का कोई समय आता है तब साधारण मनुष्यों में यह जानने की दोष रहित शक्ति नहीं रहती कि हमारा सुख किस बात में है?

ऐसी अवस्था में यदि इन साधारण और अनाधिकारी लोगों के हाथ नीति का यह अकेला तत्त्व “अधिकांश लोगों का अधिक सुख" लग जाय तो वही भयानक परिणाम होगा जो शैतान के हाथ मे मशाल देने से होता है। यह बात उक्त दोनों उदाहरणों (साक्रेटीज और क्राइस्ट) से भली-भाँति प्रगट हो जाती है। इस उत्तर में कुछ जान नहीं कि “नीति-धर्म का हमारा तत्त्व शुद्ध और सच्चा है, यदि मूर्ख लोगों ने उसका दुरुपयोग किया तो हम क्या कर सकते है?’’ कारण यह है कि, यद्यपि तत्त्व शुद्ध और सच्चा हो, तथापि उसका उपयोग करने के अधिकारी कौन हैं, वे उसका उपयोग कब और कैसे करते है; इत्यादि बातों की मर्यादा भी, उसी तत्त्व के साथ, बतला देनी चाहिये। नहीं तो संभव है कि, हम अपने को साक्रेटीज के सदृश नीति- निर्णय करने में समर्थ मान कर, अर्थ का अनर्थ कर बैंठे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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