गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौथा प्रकरण
आधिभौतिक सुखवादियों का उक्त तत्त्व आध्यात्मिक पंथ को मंजूर है। यदि यह कहा जाये तो भी कोई आपत्ति नहीं कि आध्यात्मिकवादियों ने ही इस तत्त्व को अत्यंत प्राचीन काल में ढूंढ़ निकाला था और भेद इतना ही है कि अब आधिभौतिकवादियों ने उसका एक विशिष्ट रीति से उपयोग किया है। तुकाराम महाराज ने कहा ही है कि “संतजनों की विभूतियां केवल जगत के कल्याण के लिये हैं- वे लोग परोपकार करने में अपने शरीर को कष्ट दिया करते हैं।’’ अर्थात इस तत्त्व की सचाई और योग्यता के विषय में कुछ भी संदेह नहीं है। स्वयं श्रीमद्धगवद्गीता में ही, पूर्ण योगयुक्त अर्थात कर्मयोग युक्त ज्ञानी पुरुषों के लक्षणों का वर्णन करते हुए, यह बात दो बार स्पष्ट कही गई है कि वे लोग “सर्वभूतहिते रताः’’ अर्थात सब प्राणियों का कल्याण करने ही में निमग्र रहा करते हैं[1]; और इस बात का पता दूसरे प्रकरण में दिये हुए महाभारत के “यदभूतहितमत्यन्तं तत् सत्यमिति धारणा’’ वचन से स्पष्टता चलता है, कि धर्म-अधर्म का निर्णय करने के लिये हमारे शास्त्रकार इस तत्त्व को हमेशा ध्यान में रखते थे। परन्तु हमारे शास्त्रकारों के कथनानुसार ‘सर्वभूतहित’ को ज्ञानी पुरुषों के आचरण का बाह्य लक्षण समझ कर धर्म-अधर्म का निर्णय करने के, किसी विशेषप्रसंग पर, स्थूल मान से उस तत्त्व का उपयोग करना एक बात है; और उसी को नीतिमत्ता का सर्वस्व मान कर, दूसरी किसी बात पर विचार न करके, केवल इसी नींव पर नीतिशास्त्र का भव्य भवन निर्माण करना दूसरी बात है; इन दोनों मे बहुत भिन्नता है। आधिभौतिक पंडित दूसरे मार्ग को स्वीकार करके प्रतिपादन करते हैं कि नीतिशास्त्र का, अध्यात्मविद्या से, कुछ भी संबंध नहीं है। इसलिये हमें अब यह देखना चाहिये कि उनका कहना कहाँ तक युक्तिसंगत है। ‘सुख’ और ‘हित’ दोनों शब्दों के अर्थ में बहुत भेद है; परन्तु यदि इस भेद पर अभी ध्यान न दें, और ‘सर्वभूतहित’ का अर्थ “अधिकांश लोगों का अधिक सुख’’ मान लें, और कार्य-अकार्य- निर्णय के काम में केवल इसी तत्त्व का उपयोग करें, तो यह साफ देख पड़ेगा कि बड़ी बड़ी अनेक कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं। मान लीजिये कि, इस तत्त्व का कोई आधिभौतिक पंडित अर्जुन को उपदेश देने लगता; तो वह अर्जुन से क्या कहता? यही न कि, यदि युद्ध में जय मिलने पर अधिकांश लोगों का अधिक सुख होना संभव है, तो भीष्म पितामह को भी मार कर युद्ध करना तेरा कर्तव्य है। दिखने को तो यह उपदेश बहुत सीधा और सहज देख पड़ता है ; परन्तु कुछ विचार करने पर इसकी अपूर्णता और अड़चन समझ में आ जाती है। पहले यही सोचिये कि, अधिक यानि कितना? पांडवों की सात अक्षौहिणियां सेना थीं और कौरवों की ग्यारह, इसलिये यदि पांडवों की हार हुई होती तो कौरवों को सुख हुआ होता- क्या इसी युक्तिवाद से पांडवों का पक्ष अन्याय कहा जा सकता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी.5.25;12.4
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