गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौथा प्रकरण
परन्तु इस पक्ष के लोग परार्थ की श्रेष्टता को स्वीकार नहीं करते; किंतु वे यही कहते हैं कि हर समय अपनी बुद्धि के अनुसार इस बात का विचार करते रहो कि स्वार्थ श्रेष्ठ है या परार्थ। इसका परिणाम यह होता है कि जब स्वार्थ और परार्थ में विरोध उत्पन्न होता है तब इस प्रश्न का निर्णय करते समय बहुधा मनुष्य स्वार्थ की ही ओर अधिक झुक जाया करता है कि लोक-सुख के लिये अपने कितने सुख का त्याग करना चाहिये। उदाहरणार्थ, यदि स्वार्थ और परार्थ को एक समान प्रबल मान लें तो सत्य के लिये प्राण देने और राज्य खो देने की बात तो दूर ही रही, परन्तु इस पंथ का मत से यह भी निर्णय नहीं हो सकता कि सत्य के लिये द्रव्य की हानि को सहना चाहिये या नहीं। यदि कोई उदार मनुष्य परार्थ गी. र. 11 के लिये प्राण दे दे, तो इस पंथ वाले कदाचित उसकी स्तुति कर देंगे; परन्तु जब यह मौका स्वयं अपने ही ऊपर आ जायगा तब स्वार्थ और परार्थ दोनों ही का आश्रय करने वाले ये लोग स्वार्थ की ओर ही अधिक झुकेंगें। ये लोग, हॉब्स के समान परार्थ को एक प्रकार का दूरदर्शी स्वार्थ नहीं मानते; किंतु ये समझते हैं कि हम स्वार्थ और परार्थ को तराजू में तौल कर उनके तारतम्य अर्थात उनकी न्यूनाधिकता का विचार करके बड़ी चतुराई से अपने स्वार्थ का निर्णय किया करते हैं; अतएव ये लोग अपने मार्ग को ‘उदात’ या ‘उच्च’ स्वार्थ परन्तु है तो स्वार्थ ही कह कर उसकी बड़ाई मारते फिरते हैं[1]। परन्तु देखिये, भर्तृहरि ने क्या कहा हैः- एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान् परित्यज्य ये सामान्यास्तु परार्थमुदयमभृतः स्वार्थाअविरोधेन ये । तेअमी मानवराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निध्नन्ति ये ये तु ध्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।। “जो अपने लाभ को त्याग कर दूसरों का हित करते हैं वे ही सच्चे सत्पुरुष हैं। स्वार्थ को न छोड़कर जो लोग लोकहित के लिये प्रयत्न करते हैं वे पुरुष सामान्य हैं; और अपने लाभ के लिये जो दूसरों का नुकसान करते हैं वे नीच, मनुष्य नहीं हैं- उनको मनुष्याकृति राक्षस समझना चाहिये। परन्तु एक प्रकार के मनुष्य और भी हैं जो लोकहित का निरर्थक नाश किया करते हैं- मालूम नहीं पड़ता कि ऐसे मनुष्यों को क्या नाम दिया जाय “[2]। इसी तरह राजधर्म की उत्तम स्थिति का वर्णन करते समय कालिदास ने भी कहा है:- स्वसुखनिरभिलाषः खिदयसे लोकहेतोः प्रतिदिनमथवा ते वृतिरेवंविधैव ।। अर्थात “तू अपने सुख की परवा न करके लोकहित के लिये प्रतिदिन कष्ट उठाया करता है।’’ अथवा तेरी वृति (पेशा) ही यही है’’[3]। भर्तृहरि, या कालिदास यह जानना नहीं चाहते थे कि कर्मयोगशास्त्र में स्वार्थ चौथा प्रकरण और परार्थ को स्वीकार करके उन दोनों तत्त्वों के तारतम्य-भाव से धर्म-अधर्म या कर्म-अकर्म का निर्णय कैसे करना चाहिये; तथापि परार्थ के लिये स्वार्थ छोड़ देने वाले पुरुषों को उन्होंने जो प्रथम स्थान दिया है, वही नीति की दृष्टि से भी न्याय है। इस पर इस पंथ के लोगों का यह कहना है कि, “यद्यपि तात्विक दृष्टि से परार्थ श्रेष्ठ है, तथापि चरम सीमा की शुद्ध नीति की ओर न देखकर, हमें सिर्फ यही निश्चित करना है कि साधारण व्यवहार में ‘सामान्य’ मनुष्यों को कैसे चलना चाहिये; और इसीलिये हम ‘उच्च स्वार्थ’ को जो अग्रस्थान देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अंग्रेजी में इसेenlightened self-interest कहते हैं। हमने enlightened का भाषान्तर उदात या उच्च शब्दों से किया है।
- ↑ भर्तृ. नी. शा. 74
- ↑ शाकुं. 5.7
संबंधित लेख
प्रकरण | नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज