गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौथा प्रकरण
इस उपदेश के अनुसार एक बार आत्मा के सच्चे स्वरूप की पहचान होने पर सब जगत आत्ममय दिखाई पड़ने लगता है और स्वार्थ तथा परार्थ का भेद ही मन में रहने नहीं पाता। याज्ञवल्क्य का यह युक्तिवाद दिखने में तो हॉब्स के मतानुसार ही है; परन्तु यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि इन दोनों से निकाले अनुमान एक दूसरे के विरुद्ध हैं। हॉब्स स्वार्थ ही को प्रधान मानता है; और सब परार्थ को दूरदर्शी स्वार्थ का ही एक स्वरूप मान कर वह कहता है कि इस संसार में स्वार्थ के सिवा और कुछ नहीं है। याज्ञवल्क्य ‘स्वार्थ’ शब्द के ‘स्व’ (अपना) पद के आधार पर दिखलाते हैं कि अध्यात्म दृष्टि से अपने एक ही आत्मा में सब प्राणियों का और सब प्राणियों में ही अपने आत्मा का, अविरोध भाव से समावेश कैसे होता है? यह दिखलाकर उन्होंने स्वार्थ और परार्थ में दिखने वाले द्वैत के झगडे़ की जड़ ही को काट डाला है। याज्ञवल्क्य के उक्त मत और संन्यासमार्गीय मत पर अधिक विचार आगे किया जायेगा। यहाँ पर याज्ञवल्क्य आदि के मतों का उल्लेख यही दिखलाने के लिये किया गया है, कि “सामान्य मनुष्यों की प्रवृति स्वार्थ- विषयक अर्थात आत्मसुख-विषयक होती है’’ इस एक ही बात को थोड़ा बहुत महत्त्व देकर, अथवा इसी एक बात को सर्वथा अपवाद- रहित मानकर, हमारे प्राचीन ग्रंथकारों ने इसी बात से हॉब्स के विरुद्ध दूसरे अनुमान कैसे निकाले हैं? जब यह बात सिद्ध हो चुकी कि मनुष्य का स्वभाव केवल स्वार्थमूलक अर्थात तमोगुणी या राक्षसी नहीं है, जैसा कि अंग्रेज ग्रंथकार हॉब्स और फ्रेंच पंडित हेल्वेशियस कहते है; किंतु मनुष्य-स्वभाव में स्वार्थ के साथ ही परोपकार बुद्धि की सात्त्विक मनोवृति भी जन्म से पाई जाती है; अर्थात जब यह सिद्ध हो चुका कि परोपकार केवल दूरदर्शी स्वार्थ नहीं है; तब स्वार्थ अर्थात स्वसुख और परार्थ अर्थात दूसरों का सुख, इन दोनों तत्त्वों पर समदृष्टि रख कर कार्य-अकार्य व्यवस्था शास्त्र की रचना करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। यही आधिभौतिक- वादियों का तीसरा वर्ग है। इस पक्ष में भी यह आधिभौतिक मत मान्य है कि स्वार्थ और परार्थ दोनों सांसारिक सुखवाचक हैं, सांसारिक सुख के परे कुछ भी नहीं है। भेद केवल इतना ही है कि, इस पंथ के लोग स्वार्थबुद्धि के समान ही परार्थबुद्धि को भी स्वाभाविक मानते हैं इसलिये वे कहते हैं कि नीति का विचार करते समय स्वार्थ के समान परार्थ की और भी ध्यान देना चाहिये। सामान्यतः स्वार्थ और परार्थ में विरोध उत्पन्न नहीं होता इसलिये मनुष्य जो कुछ करता है वह सब प्रायः समाज का भी हित का होता है। यदि किसी ने धनसंचय किया तो उससे समस्त समाज का भी हित होता है; क्योंकि अनेक व्यक्तियों के समूह को समाज कहते है और यदि उस समाज का प्रत्येक व्यक्ति दूसरे की कुछ हानि न कर, अपना अपना लाभ करने लगे तो उससे कुल समाज का हित होगा। अतएव इस पंथ के लोगों ने निश्चय किया है कि अपने सुख की ओर दुर्लक्ष न करके यदि कोई मनुष्य लोकहित का कुछ काम कर सके तो ऐसा करना उसका कर्त्तव्य होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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