गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौथा प्रकरण
जब हम देखते हैं कि व्याघ्र सरीखे क्रूर जानवर भी अपने बच्चों की रक्षा के लिये प्राण देने को तैयार हो जाते हैं, तब हम यह कभी नहीं कह सकते कि मनुष्य के हृदय में प्रेम और परोपकारबुद्धि जैसे सदगुण केवल दूरदर्शी स्वार्थबुद्धि से करना शास्त्र की दृष्टि से भी उचित नहीं है। यह बात हमारे प्राचीन पंडितों को भी अच्छी तरह से मालूम थी कि केवल संसार में लिप्त रहने के कारण जिस मनुष्य की बुद्धि शुद्ध नही रहती है, वह मनुष्य जो कुछ परोपकार के नाम से करता है वह बहुधा अपने ही हित के लिये करता है। महाराष्ट में तुकाराम महाराज एक बड़े भारी भगवद्वक्त हो गये हैं। वे कहते हैं कि “बहू दिखलाने के लिये तो रोती है सास के हित के लिये; परन्तु हदय का भाव कुछ और ही रहता है।’’ बहुत से पंडित तो हेल्वेशियस से भी आगे बड़ गये हैं। उदाहरणार्थ, “मनुष्य की स्वार्थ प्रवृति तथा परार्थ प्रवृति भी दोषमय होती है- प्रवर्तनालक्षणा दोशा’’ इस गौतम- न्यायसूत्र [1] के आधार पर ब्रह्मसूत्र भाष्य में श्रीशंकराचार्य ने जो कुछ कहा है[2], उस पर टीका करते हुए आनंदगिरी लिखते हैं कि “जब हमारे हृदय में कारुणयवृति जागृत होती है और हमको उससे दुःख होता है तब उस दुःख को हटाने के लिये हम अन्य लोगों पर दया और परोपकार किया करते हैं।" आनंदगिरी की यही युक्ति प्रायः हमारे सब संन्यासमार्गीय ग्रंथो मे पाई जाती है, जिससे यह सिद्ध करने का प्रयत्न देख पड़ता है कि सब कर्म स्वार्थमूलक होने के कारण त्याज्य हैं। परन्तु बृहदारणयकोपनिषद [3]में याज्ञवल्क्य और उनकी पत्नी मैत्रेयी का जो संवाद दो स्थानों पर है, उसमें इसी युक्तिवाद का उपयोग एक दूसरी ही अदभुत रीति से किया गया है। मैत्रेयी ने पूछा “हम अमर कैसे होंगी’’ इस प्रश्न का उत्तर देते समय याज्ञवल्कय उससे कहते हैं “हे मैत्रेयी! स्त्री अपने पति को, पति ही के लिये, नहीं चाहती; किंतु वह अपने आत्मा के लिये उसे चाहती है। इसी तरह हम अपने पुत्र पर उसके हितार्थ प्रेम नहीं करते; किंतु हम स्वयं अपने ही लिये उसपर प्रेम करते हैं[4] द्रव्य, पशु और अन्य सब वस्तुओं के लिये भी यही न्याय उपयुक्त है।’ आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति’ - अपने आत्मा के प्रीत्यर्थ ही सब पदार्थ हमें प्रिय लगते हैं। और, यदि इस तरह सब प्रेम आत्ममूलक है, तो क्या हमको सबसे पहले यह जानने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये, कि आत्मा (हम) क्या हैं “यह कह कर अंत में याज्ञवल्क्य ने यही उपदेश दिया है“आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितध्यः- अर्थात सब से पहले यह देखो कि आत्मा कौन है; फिर उसके विषय में सुनो और उसका मनन [5] तथा ध्यान करो।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.1.18
- ↑ वेसू. शाभा. 2.2.3
- ↑ 2.4;4.5
- ↑ " What say you of natural affection? Is that also a species of self-love ?Yes ; All is self-love. Your children are loved only because they are yours. Your friend for a like reason. And Your country engages you only so far as it has a connection with Yourself. “ह्यूम ने भी इसी युक्तिवाद का उल्लेख अपने Of the Dignity or Meanness of Human Nature नामक निबंध में किया है। स्वयं ह्यूम का मत इससे भिन्न है।
- ↑ Vol. 2. Chap. 5
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