गीता रहस्य -तिलक पृ. 71

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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चौथा प्रकरण

क्योंकि इस वर्ग के लोग चार्वाक के मतानुसार यह नहीं कहते कि समाज-धारण के लिये नीति के बंधनों की कुछ आवश्यकता ही नहीं है; किंतु इन लोगों ने अपनी विचार-दृष्टि से इस बात का कारण बतलाया है कि सभी लोगों को नीति का पालन क्यों करना चाहिये। इनका कहना यह है कि,यदि इस बात को सूक्ष्म विचार किया जाये कि संसार में अहिंसा- धर्म कैसे निकला और लोग उसका पालन क्यों करते हैं, तो यही मालूम होगा कि, ऐसे स्वार्थमूलक भय के सिवा उसका कुछ दूसरा आदिकारण नहीं हैं, जो इस वाक्य से प्रगट होता है- “यदि मैं लोगों को मारूंगा तो वे मुझे भी मार डालेंगे, और फिर मुझे अपने सुखों से हाथ धोना पड़ेगा।’’ अहिंसा-धर्म के अनुसार ही अन्य सब धर्म भी इसी या ऐसे ही स्वार्थमूलक कारणों से प्रचलित हुए हैं। हमें दुःख हुआ तो हम रोते हैं और दूसरों को हुआ तो हमें दया आती है। क्यों इसीलिये न, कि हमारे मन में यह डर पैदा होता है कि कहीं भविष्य में हमारी भी ऐसी ही दुःखमय अवस्था न हो जाये।

परोपकार, उदारता, दया, ममता, कृतज्ञता, नम्रता, मित्रता इत्यादि जो गुण लोगों के सुख के लिये आवश्यक मालूम होते हैं वे सब- यदि उनका मूलस्वरूप देखा जाय तो- अपने ही दुःख- निवाराणार्थ हैं कोई किसी की सहायता करता है या कोई किसी को दान देता है; क्यों इसलिये न, कि जब हम पर भी आ बीतेगी तब वे हमारी सहायता करेंगे। हम अन्य लोगों पर इसलिये प्यार रखते हैं कि वे भी हम पर प्यार करें।और कुछ नही तो, हमारे मन में अच्छा कहलाने का स्वार्थमूलक हेतु अवश्य रहता है। परोपकार और परार्थ दोनों शब्द केवल भ्रांतिमूलक हैं। यदि कुछ सच्चा है तो स्वार्थ; और स्वार्थ कहते हैं अपने लिये सुख-प्राप्ति या अपने दुःख निवारण को। माता बच्चे को दूध पिलाती है, इसका कारण यह नहीं है किवह बच्चे पर प्रेम रखती है; सच्चा कारण तो यही है कि उसके स्तनों में दूध के भर जाने से उसे जो दुःख होता है उसे कम करने के लिये, अथवा भविष्य में यही लड़का मुझे प्यार करके सुख देगा इस स्वार्थ-सिद्धि के लिये ही, वह बच्चे को दूध पिलाती है।

इस बात को दूसरे वर्ग के आधिभौतिकवादी मानते हैं कि स्वयं अपने ही सुख के लिये क्यों न हो, परन्तु भविष्य पर दृष्टि रखकर, ऐसे नीतिधर्म का पालन करना चाहिये कि जिससे दूसरों को भी सुख हो- बस, यही इस मत में और चार्वाक के मत में भेद है। तथापि चार्वाक- मत के अनुसार इस मत में भी यह माना जाता है कि मनुष्य केवल विषय- सुखरूप स्वार्थ के सांचे मे ढला हुआ एक पुतला हैं। इंगलैंड में हा‌‍ब्स और फ्रांस में हेल्वेशियस ने इस मत का प्रतिपादन किया है। परन्तु इस मत के अनुयायी अब न तो इंग्‍लैंडमें ही हैं और न कहीं बाहर ही अधिक मिलेगें। हाब्स के नीतिधर्म की इस उपपत्ति के प्रसिद्ध होने पर बटलर[1] सरीखे विद्वानों ने उसका खंडन करके सिद्ध किया कि मनुष्य- स्वभाव केवल स्वार्थी नहीं है; स्वार्थ के समान ही उसमें जन्म से ही भूत- दया , प्रेम, कृतज्ञता आदि सद्गुण भी कुछ अंश में रहते हैं। इसलिये किसी व्यवहार या कर्म का नैतिक दृष्टि से विचार करते समय केवल स्वार्थ या दूरदर्षी स्वार्थ की ओर ही ध्यान न देकर, मनुष्य- स्वभाव के दो स्वाभाविक गुणों (अर्थात स्वार्थ ओर परार्थ) की ओर नित्य ध्यान देना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हांब्स का मत उसके Leviathan नामक ग्रंथ में संग्रहीत है तथा बटलर का मत उसके Sermons on Human Nature नामक निबन्ध में है। हेल्वेशियस की पुस्तक का सारांश मोले ने अपनेDiverot विषयक (Vol. 2. Chap. 5) ग्रंथ में दिया है।

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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