गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौथा प्रकरण
सारांश, इस जगत का “मैं’’ ही केन्द्र हूँ और केवल यही सब नीतिशास्त्रों का रहस्य है; बाकी सब झूठ है। ऐसे ही आसुरी मताभिमानियों का वर्णन गीता के सोलहवें अध्याय में किया गया है- “ईश्वरोअहमहं भोगी सिद्धोअहं बलवान् सुखी’’[1] - मैं ही ईश्वर, मैं ही भोगने वाला और मैं ही सिद्ध, बलवान और सुखी हूँ। यदि श्रीकृष्ण के बदले जाबालि के समान इस पंथवाला कोई आदमी अर्जुन को उपेदश करने के लिये होता, तो वह पहले अर्जुन के कान मलकर यह बतलाया कि “अरे! तू मुर्ख तो नहीं है। लड़ाई में सब को जीत कर अनेक प्रकार के राजभोग और विलासों के भोगने का यह बढ़िया मौका पा कर भी तू 'यह करूं कि वह करूं?’ इत्यादि व्यर्थ भ्रम में कुछ का कुछ बक रहा है। यह मौका फिर से मिलने का नहीं। कहाँ के आत्मा और कहाँ के कुटुम्बियों के लिये बैठा है? उठ, तैयार हो, सब लोगों को ठोक पीट कर सीधा कर दे और हस्तिनापुर के साम्राज्य का सुख से निष्कंटक उपभोग कर। इसी में तेरा परम कल्याण है। स्वयं अपने दृश्य तथा ऐहिक सुख के सिवा इस संसार में और रखा क्या है? परन्तु अर्जुन ने इस घृणित, स्वार्थ-साधक और आसुरी उपदेश की प्रतिक्षा नहीं की- उसने पहले ही श्रीकृष्ण से कह दिया किः- एतान्न हेतुमिच्छामि ध्नतोअपि मधुसूदन । अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।। “पृथ्वी का ही क्या, परन्तु तीनों लोकों का राज्य इतना बड़ा विषय-सुख भी इस युद्ध के द्वारा मुझे मिल जाये, तो भी मैं कौरवों को मारना नहीं चाहता चाहे वे मेरी गर्दन भले ही उड़ा दें।’’[2]। अर्जुन ने पहले ही से जिस स्वार्थपरायण और आधिभौतिक सुखवाद का इस तरह निषेध किया है, उस आसुरी मत का केवल उल्लेख करना ही उसका खंडन करना कहा जा सकता है। दूसरों के हित-अनहित की कुछ भी परवा न करके, सिर्फ अपने खुद के विषयोपभोग सुख को परम पुरुषार्थ मान कर, नीतिमता और धर्म को गिरा देने वाले आधिभौतिकवादियों की, यह अत्यंत कनिष्ठ श्रेणी, कर्मयोगशास्त्र के सब ग्रंथकारों द्वारा और सामान्य लोगों के द्वारा भी, बहुत ही अनीति की, त्याज्य और गर्ह्य मानी गई है। अधिक क्या कहा जाय, यह पंथ नीतिशास्त्र अथवा नीति-विवेचन के नाम का भी पात्र नहीं है। इसलिये इसके बारे में अधिक विचार न करके आधिभौतिक सुख-वादियों के दूसरे वर्ग की और ध्यान देना चाहिये। खुल्लमखुल्ला या प्रगट स्वार्थ संसार में चल नहीं सकता। क्योंकि, यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात है कि यद्यपि आधिभौतिक विषय-सुख प्रत्येक को इष्ट होता है तथापि जब हमारा सुख अन्य लोगों के सुखोपभोग में बाधा डालता है तब वे लोग बिना विध्न किये नहीं रहते। इसलिये दूसरे कई आधिभौतिक पंडित प्रतिपादन किया करते हैं कि, यद्यपि स्वयं अपना सुख या स्वार्थ-साध नही हमारा उद्देश्य है, तथापि सब लोगों को अपने ही समान रियासत दिये बिना सुख का मिलना संभव नहीं है इसलिये अपने सुख के लिये ही दूरदर्शिता के साथ अन्य लोगों के सुख की और भी ध्यान देना चाहिये। इन आधिभौतिकवादियों की गणना हम दूसरे वर्ग में करते हैं। बल्कि यह कहना चाहिये कि नीति की आधिभौतिक उपपत्ति का यथार्थ आरंभ यहीं से होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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