गीता रहस्य -तिलक पृ. 62

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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तीसरा प्रकरण

सारांश, क्या संस्कृत और क्या भाषा, सभी ग्रंथों में ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग उन सब नीति-नियमों के बारे में किया गया है; जो समाज-धारण के लिये, शिष्टजनों के द्वारा, अध्यात्म-दृष्टि से बनाये है; इसलिये उसी शब्द का उपयोग हमने भी इस ग्रंथ में किया है। इस दृष्टि से विचार करने पर नीति के उन नियमों अथवा ‘शिष्टाचार’ को धर्म की बुनियाद कह सकते हैं जो समाज-धारण के लिये, शिष्टजनों के द्वारा, प्रचलित किये गये हों और जो सर्वमान्य हो चुके हों। इसीलिये, महाभारत [1] में एवं स्मृति ग्रंथों में “आचारप्रभावो धर्मः’’ अथवा “आचारः परमोधर्मः’’ [2], अथवा धर्म का मूल बतलाये समय “वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः’’ [3] इत्यादि वचन कहे गये हैं। परन्तु कर्मयोग-शास्त्र में इतने ही से काम नहीं चल सकता; इस बात का भी पूरा और मार्मिक विचार करना पड़ता है कि उक्त आचार की प्रवृति ही क्यों हुई? इस आचार की प्रवृति ही का कारण क्या है? ‘धर्म’ शब्द की दूसरी एक और व्याख्या प्राचीन ग्रंथों में दी गई है; उसका भी यहाँ थोड़ा विचार करना चाहिये। यह व्याख्या मीमांसकों की है “चोदना लक्षणोअर्थो धर्मः’’ [4]। किसी अधिकारी पुरुष का यह कहना अथवा आज्ञा करना कि “तू अमुक काम कर’’ अथवा “मत कर’’ ‘चोदना’ यानि प्रेरणा है।

जब तक इस प्रकार कोई प्रबंध नहीं कर दिया जाता तब तक कोई भी काम किसी को भी करने की स्वतंत्रता होती है। इसका आशय यही है कि पहले पहल, निबंध या प्रबंध के कारण, धर्म निर्माण हुआ। धर्म की यह व्याख्या, कुछ अंश में, प्रसिद्ध अंग्रेज ग्रंथकार हाब्स के मत से, मिलता है। असभ्य तथा जंगली अवस्था में प्रत्येक मनुष्य का आचरण, समय समय पर उत्पन्न होने वाली मनोवृतियों की प्रबलता के अनुसार हुआ करता है। परन्तु धीरे धीरे कुछ समय के बाद यह मालूम होने लगता है कि इंद्रियों के स्वभाविक व्यापारों की कुछ मर्यादा निश्चित करके उसके अनुसार बर्ताव करने ही में सब लोगों का कल्याण है; तब प्रत्येक मनुष्य ऐसी मर्यादाओं का पालन कायदे के तौर पर करने लगता है, जो शिष्‍टाचार से, अन्य रीति से,सुदृड़ हो जाया करती है। जब इस प्रकार की मर्यादाओं की संख्या बहुत बड़ जाती है तब उन्हीं का एक शास्त्र बन जाता है। पूर्व समय में विवाह व्यवस्था का प्रचार नहीं था। पहले पहल उसे श्रेतकेतु ने चलाया। और, पिछले प्रकरण में बतलाया गया है कि शुक्राचार्य ने मदिरापान को निषिद्ध ठहराया। यह न देख कर, कि इन मर्यादाओं को नियुक्त करने में श्रेतकेतु अथवा शुक्राचार्य का क्या हेतु था, केवल इसी एक बात पर ध्यान देकर कि इन मर्यादाओं के निश्चित करने का काम या कर्तव्य इन लोगों को करना पड़ा, धर्म शब्द की “चोदना लक्षणोअर्थो धर्मः’’ व्याख्या बनाई गई है। धर्म भी हुआ तो पहले उसका महत्त्व किसी व्यक्ति के ध्यान में आता है और तभी उसकी प्रवृति होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अनु. 104.157
  2. मनु.1.108
  3. मनु.2.12
  4. जैसू.1.1.2

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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