गीता रहस्य -तिलक पृ. 141

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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सातवां प्रकरण

इसलिये यह बात सामान्यतः सभी देशों के ग्रन्थों में पाई जाती है कि, जिस समय जो सामान्य सिद्धान्त या व्यापक तत्त्व समाज में प्रचलित रहता है, उसके आधार पर ही किसी ग्रन्थ के विषय का प्रतिपादन किया जाता है। आज कल कापिल सांख्यशास्त्र का अभ्यास प्रायः लुप्त ही हो गया है, इसलिये ही उक्त प्रस्तावना लिखी गई है। अब हम देखेंगे कि इस शास्त्र के मुख्य सिद्धान्त कौन से हैं। सांख्यशास्त्र का पहला सिद्धान्त यह है कि, इस संसार में नई वस्तु कोई भी उत्पन्‍न नहीं होती; क्योंकि, शून्य से अर्थात जो पहले था ही नहीं उससे शून्य को छोड़ और कुछ भी प्राप्त हो नहीं सकता। इसलिये यह बात सदा ध्यान में रखनी चाहिये कि उत्पन्न हुई वस्तु में अर्थात कार्य में जो गुण देख पड़ते हैं वे गुण, जिससे यह वस्तु उत्पन्न हुई है उसमें, (अर्थात कारण) में सूक्ष्म रीति से तो अवश्य होने ही चाहिये। [1]। बौद्ध और काणाद यह मानते हैं कि, एक पदार्थ का नाश हो कर उससे दूसरा नया पदार्थ बनता है; उदाहरणार्थ, बीज का नाश होने के बाद उससे अंकुर और अंकुर का नाश होने के बाद उससे पेड़ होता है। परन्तु सांख्यशास्त्रज्ञों और वेदान्तियों को यह मत पसंद नहीं है।

वे कहते है कि वृक्ष के बीज में जो ‘द्रव्य’ है उनका नाश नहीं होता; किन्तु वही द्रव्य जमीन से और वायु से दूसरे द्रव्यों को खींच लिया करते हैं; और इसी कारण से बीज को अंकुर का नया स्‍वरूप या अवस्था प्राप्त हो जाता है[2]। इसी प्रकार जब लकड़ी जलती है तब उसके ही राख या धुआं आदि, रूपान्तर हो जाते हैं; लकड़ी के मूल ‘द्रव्यों’ का नाश होकर धुआं नामक कोई नया पदार्थ उत्पन्न नहीं होता। छांदोग्योपनिषद [3] में कहा है ‘‘कथमसतः सज्जायेत’’- जो है ही नहीं उससे, जो है वह, कैसे प्राप्त हो सकता है? जगत के मूल कारण के लिये ‘असत’ शब्द का उपयोग कभी कभी उपनिषदों में किया गया है[4] परंतु यहाँ ‘असत’ का अर्थ ‘अभाव=नहीं ’ नहीं है। वेदांतसूत्रों[5] में यह निश्चय किया गया है कि, ‘असत’ शब्द से केवल नामरूपात्‍मक व्यक्त स्वरूप या अवस्था का अभाव ही विवक्षित है। दूध से ही दही बनता है, पानी से नही; तिल्ली से ही तेल निकलता है, बालू से नही; इत्यादि प्रत्यक्ष देखे हुए अनुभवों से भी यही सिद्धान्त प्रगट होता है। यदि हम यह मान लें कि ‘कारण’ में जो गुण नहीं हैं वे ‘कार्य’ में स्वतन्त्र रीति से उत्पन्न होते हैं; तो फिर हम इसका कारण नहीं बतला सकते कि पानी से दही क्यों नहीं बनता। सारांश यह है कि, जो मूल में है ही नहीं उससे, अभी जो अस्तित्व में है वह, उत्पन्न नहीं हो सकता। इसलिये सांख्य-वादियों ने यह सिद्धान्त निकाला है कि, किसी कार्य के वर्तमान द्रव्यांश और गुण मूलकारण में भी किसी न किसी रूप से रहते ही हैं। इसी सिद्धान्त को ‘सत्कार्यवाद’ कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सां. का. 9
  2. वेसू. शांभा. 2.1.18
  3. 6.2.2
  4. छां. 3.19.1' तै. 2.7.1
  5. 2.1.16.17

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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