गीता रहस्य -तिलक पृ. 142

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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सातवां प्रकरण

अर्वाचीन पदार्थ विज्ञान के ज्ञाताओं ने भी यही सिद्धान्त ढूंढ़ निकाला है कि, पदार्थों के जड़ द्रव्य और कर्म-शक्ति दोनों सर्वदा मौजूद रहते हैं; किसी पदार्थ के चाहे जितने रूपान्तर हो जायें तो भी अंत में सृष्टि के कुल द्रव्यांश का और कर्म-शक्ति का जोड़ हमेंशा एक सा बना रहता है। उदाहरणार्थ, जब हम दीपक को जलता देखते हैं तब तेल भी धीरे-धीरे कम होता जाता है और अन्त में वह नष्ट हुआ सा देख पड़ता है। यद्यपि यह सब तेल जल जाता है, तथापि उसके परमाणुओं का बिल्‍कुल ही नाश नहीं हो जाता। उन परमाणुओं का अस्तित्व धुएं या काजल या अन्य सूक्ष्म द्रव्यों के रूप् में बना रहता है। यदि हम इन सूक्ष्म द्रव्यों को एकत्र करके तौलें तो मालूम होगा कि उनका तौल या वजन तेल और तेल के जलते समय उसमें मिले हुए वायु के पदार्थों के वजन के बराबर होता है। अब तो यह भी सिद्ध हो चुका है कि उक्त नियम कर्म-शक्ति के विषय में भी लगाया जा सकता है।

यह बात याद रखनी चाहिये कि, यद्यपि आधुनिक पदार्थ विज्ञान-शास्त्र का और सांख्यशास्त्र का सिद्धान्त देखने में एक ही सा जान पड़ता है, तथापि सांख्य-वादियों का सिद्धान्त केवल एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ की उत्पत्ति के ही विषय में -अर्थात सिर्फ कार्यकारण-भाव ही के संबंध में उपयुक्त होता है। परन्तु, अर्वाचीन पदार्थ विज्ञान शास्त्र का सिद्धान्त इससे अधिक व्यापक है। ‘कार्य’ का कोई भी गुण ‘कारण’ के बाहर के गुणों से उत्पन्न नहीं हो सकता; इतना ही नहीं, परन्तु जब कारण को कार्य का स्वरूप प्राप्त होता है तब उस कार्य में रहने वाले द्रव्यांश और कर्म-शक्ति का कुछ भी नाश नहीं होता; पदार्थ की भिन्न भिन्न अवस्थाओं के द्रव्यांश और कर्म-शक्ति के जोड़ का वजन भी सदैव एक ही सा रहता है- न तो वह घटता है ओर न बढ़ता है। यह बात प्रत्यक्ष प्रयोग से गणित के द्वारा सिद्ध कर दी गई है। यही उक्त दोनों सिद्धान्तों में महत्त्व की भिन्नता है।

जब हम इस प्रकार विचार करते हैं तो हमें जान पड़ता है कि भगवद्गीता के ‘‘नासतो विद्यते भावः’’-जो है ही नहीं उसका कभी भी अस्तित्व हो नहीं सकता-इत्यादि सिद्धान्त जो दूसरे अध्याय के आरंभ में दिये गये हैं[1], वे यद्यपि देखने में सत्कार्य-वाद की अपेक्षा अर्वाचीन पदार्थ विज्ञान शास्त्र के सिद्धान्तों के साथ अधिक है। छान्दोग्योपनिषद के उक्त वचन का भी यही भावार्थ है। सारांश, सत्कार्य-वाद का सिद्धान्त वेदान्तियों को मान्य है; परन्तु अद्वैत वेदान्तशास्त्र का मत है कि इस सिद्धांत का उपयोग सगुण सृष्टि के परे कुछ भी नहीं किया जा सकता; निर्गुण से सगुण की उत्पत्ति कैसे देख पड़ती है, इस बात की खोज और ही प्रकार से करनी चाहिये। इस वेदान्त मत का विचार आगे चल कर अध्यात्म प्रकरण में विस्तृत रीति से किया जायेगा। इस समय तो हमें सिर्फ यही विचार करना है कि सांख्य-वादियों की पहुँच कहाँ तक है, इसलिये अब हम इस बात का विचार करेंगे कि सत्कार्यवाद का सिद्धान्त मान कर सांख्यों ने क्षर-अक्षर-शास्त्र में उसका उपयोग कैसे किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 2. 16

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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