गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
सातवां प्रकरण
अस्तु, यदि पहले हम न्याय और सांख्य के सिद्धान्तों को अच्छी तरह समझ लें तो फिर वेदान्त के -विशेषतः गीता प्रतिपादित वेदान्त के- तत्त्व जल्दी समझ में आ जायेंगे। इसलिये पहले हमें इस बात का विचार करना चाहिये कि इन दो स्मार्त्त शास्त्रों का, क्षर-अक्षर-सृष्टि की रचना के विषय में, क्या मत है। बहुतेरे लोग न्यायशास्त्र का यही उपयोग समझते हैं कि किसी विवक्षित अथवा गृहीत बात से तर्क के द्वारा कुछ अनुमान कैसे निकाले जावें, और इन अनुमानों में से यह निर्णय कैसे किया जावे कि कौन से सत्य हैं और कौन से झूठ हैं। परंतु यह भूल है। अनुमानादिप्रमाणखंड न्यायशास्त्र का एक भाग है सही, परंतु यही कुछ उसका प्रधान विषय नहीं है। प्रमाणों के अतिरिक्त, सृष्टि की अनेक वस्तुओं का यानि प्रमेय पदार्थों का वर्गीकरण करके नीचे के वर्ग से ऊपर के वर्ग की ओर चढ़ते जाने से सृष्टि के सब पदार्थों के मूल वर्ग कितने हैं, उनके गुण-धर्म क्या हैं, उनसे अन्य पदार्थों की उत्पत्ति कैसे होती है और ये बातें किस प्रकार सिद्ध हो सकती हैं, इत्यादि अनेक प्रश्नों का भी विचार न्यायशास्त्र में किया गया है। यही कहना उचित होगा कि यह शास्त्र केवल अनुमानखंड का विचार करने के लिये नहीं, वरन् उक्त प्रश्नों का विचार करने ही के लिये निर्माण किया गया है। कणाद के न्यायसूत्रों का आरंभ और आगे की रचना भी इसी प्रकार की है। कणाद के अनुयायियों को काणाद कहते हैं। इन लोगों का कहना है कि जगत का मूल कारण परमाणु ही है। परमाणु के विषय में कणाद की और पश्चिमी आधिभौतिक-शास्त्राज्ञों की, व्याख्या एक ही समान है। किसी भी पदार्थ का विभाग करते करते अंत में जब विभाग नहीं हो सकता तब उसे परमाणु (परमाणु) कहना चाहिये। जैसे जैसे ये परमाणु एकत्र होते जाते हैं और भिन्न भिन्न पदार्थ बनते जाते हैं। मन और आत्मा के भी परमाणु होते हैं, और जब वे एकत्र होते हैं तब चैतन्य की उत्पत्ति होती है। पृथ्वी, जल, तेज और वायु के परमाणु स्वभाव ही से पृथक पृथक रहते हैं। पृथ्वी के मूल परमाणु में चार गुण (रूप, रस, गंध, स्पर्श ) हैं,पानी के परमाणु में तीन गुण हैं, तेज के परमाणु में दो गुण हैं, और वायु के परमाणु में एक ही गुण है। इस प्रकार सब जगत पहले से ही सूक्ष्म और नित्य परमाणुओं से भरा हुआ है, परमाणुओं के सिवा संसार का मूल कारण और कुछ भी नहीं है। जब सूक्ष्म और नित्य परमाणुओं के परस्पर संयोग का ‘आरंभ’ होता है, तब सृष्टि के व्यक्त पदार्थ बनने लगते हैं। नैय्यायिकों द्वारा प्रतिपादित, सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध की, इस कल्पना को ‘आंरभ-वाद’ कहते हैं। कुछ नैय्यायिक इसके आगे कभी नहीं बढ़ते। एक नैय्यायिक के बारे मे कहा जाता है कि मत्यु के समय जब उससे ईश्वर का नाम लेने को कहा गया तब वह ‘पीलवः! पीलवः!’ -परमाणु!परमाणु!परमाणु!- चिल्ला उठा। कुछ दूसरे नैय्यायिक यह मानते हैं कि परमाणुओं के संयोग का निमित्त कारण ईश्वर है। इस प्रकार वे सृष्टि की कारण-परंपरा की श्रृंखला को पूर्ण कर लेते हैं। ऐसे नैय्यायिकों को सेश्वर कहते हैं। वेदांतसूत्र के दूसरे अध्याय के दूसरे पाद में इस परमाणुवाद का (2. 2.11-17), और उसके साथ ही साथ " ईश्वर केवल निमित्त कारण है," इस मत का भी (2. 2. 37-39) खंडन किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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