गीता रहस्य -तिलक पृ. 138

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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सातवां प्रकरण

उल्लिखित परमाणुवाद का वर्णन पढ़कर अंग्रेजी पढ़े-लिखे पाठकों को अर्वाचीन रसायन शास्त्रज्ञ डाल्टन के परमाणु वाद का अवश्‍य ही स्मरण होगा। परंतु पश्चिमी देशों में प्रसिद्ध सृष्टिशास्‍त्रज्ञ डार्विन के उत्क्रांति-वाद ने जिस प्रकार डाल्टन के परमाणु वाद की जड़ ही उखाड़ दी है, उसी प्रकार हमारे देश में भी प्राचीन समय में सांख्य-मत ने कणाद के मत की बुनियाद हिला डाली थी। कणाद के अनुयायी यह नहीं बतला सकते कि मूल परमाणु को गति कैसे मिली। इसके अतिरिक्त वे लोग इस बात का भी यथोचित निर्णय नहीं कर सकते कि वृक्ष, पशु, मनुष्य इत्यादि सचेतन प्राणियों की बढ़ी हुई श्रेणियां कैसे बनी और अचेतन को सचेतना कैसे प्राप्त हुई। यह निर्णय, पश्चिमी देशों में उन्नीसवी सदी में लेमार्क और डार्विन ने तथा हमारे यहाँ प्राचीन समय में कपिल मुनि ने किया है। इन दोनों मतों का यही तात्पर्य है कि, एक ही मूल पदार्थ के गुणों का विकास हुआ और अब पश्चिमी देशों में भी, परमाणु-वाद पर विश्‍वास नहीं रहा है। अब तो आधुनिक पदार्थ शास्‍त्रज्ञों ने यह भी सिद्ध कर दिखाया है कि परमाणु अविभाज्य नहीं है।

आज कल जैसे सृष्टि के अनेक पदार्थों का पृथक्‍करण और परीक्षण करके, अनेक सृष्टिशास्त्रों के आधार पर परमाणु वाद या उत्क्रांति-वाद को सिद्ध कर सकते हैं, वैसे प्राचीन समय में नहीं कर सकते थे। सृष्टि के पदार्थों पर नये नये और भिन्न-भिन्न प्रयोग करना,अथवा अनेक प्रकार से उनका पृथक्‍करण करके उनके गुण-धर्म निश्चित करना, या सजीव सृष्टि के नये-पुराने अनेक प्राणियों के शारीरिक अवयवों की एकत्र तुलना करना, इत्यादि आधिभौतिक शास्त्रों की अर्वाचीन युक्तियां कणाद या कपिल को मालूम नहीं थीं। उस समय उनकी दृष्टि के सामने जितनी सामग्री थी, उसी के आधार पर उन्होंने अपने सिद्धान्त ढूंढ़ निकाले हैं। तथापि, यह आश्‍चर्य की बात है कि, सृष्टि की वृद्धि और उसकी घटना के विषय में सांख्य शास्‍त्रकारों के तात्विक सिद्धान्त में, और अर्वाचीन आधिभौतिक शास्त्रकारों के तात्विक सिद्धान्‍त में, बहुत-सा भेद नहीं है।

इसमें संदेह नहीं कि, सृष्टिशास्‍त्र के ज्ञान की वृद्धि के कारण, वर्तमान समय में, इस मत की आधिभौतिक उत्पत्ति का वर्णन अधिक नियमबद्ध प्रणाली से किया जा सकता है, और आधिभौतिक ज्ञान की वृद्धि के कारण हमें व्यवहार की दृष्टि से भी बहुत लाभ हुआ है। परंतु आधिभौतिक शास्त्रकार भी ‘एक ही अव्यक्‍त प्रकृति से अनेक प्रकार की व्यक्त सृष्टि कैसे हुई’ इस विषय में, कपिल की अपेक्षा कुछ अधिक नहीं बतला सकते। इस बात को भली-भाँति समझा देने के लिये ही इमने आगे चल कर, बीच बीच में कपिल के सिद्धान्तों के साथ ही साथ, हेकल के सिद्धान्तों का भी, तुलना के लिये, संक्षिप्त वर्णन किया है। हेकल ने अपने ग्रन्थ में साफ-साफ लिख दिया है कि, मैंने ये सिद्धान्त कुछ नये सिरे से नहीं खोजे हैं, वरन् डार्विन, स्पेन्सर इत्यादि पिछले आधिभौतिक पंडितों के ग्रन्थों के आधार से ही मैं अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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