गीता रहस्य -तिलक पृ. 120

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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छठवाँ प्रकरण

जिस प्रकार, बाहर का माल भीतर लेने के लिये और भीतर का माल बाहर भेजने के लिये किसी कारखाने में दरवाजे होते है; उसी प्रकार मनुष्य देह में बाहर के माल को भीतर लेने के लिये ज्ञानेन्द्रिय-रूपी द्वार हैं और भीतर का माल बाहर भेजने के लिये कर्मेन्द्रियरूपी द्वार हैं। सूर्य की किरणें किसी पदार्थ पर गिर कर जब लौटती हैं और हमारे नेत्रों में प्रवेश करती है, तब हमारे आत्मा को उस पदार्थ के रूप का ज्ञान होता है। किसी पदार्थ से आने वाली गंध के सूक्ष्म परमाणु जब हमारी नाक के मज्जातन्तुओं से टकराते हैं तब हमें उस पदार्थ की बास आती है। अन्य ज्ञानेंन्द्रियों के व्यापार भी इसी प्रकार हुआ करते हैं। जब ज्ञानेन्द्रियां इस प्रकार अपना व्यापार करने लगती हैं तब हमें उनके द्वारा बाह्य सृष्टि के पदार्थो का ज्ञान होने लगता है। परन्तु ज्ञानेन्द्रियां जो कुछ व्यापार करती हैं उसका ज्ञान स्वयं उनको नहीं होता, इसीलिये ज्ञानेन्द्रियों को ‘ज्ञाता’ नहीं कहते, किन्तु उन्हें सिर्फ बाहर के माल को भीतर ले जाने वाले ‘द्वार’ ही कहते हैं। इन दरवाजों से माल भीतर आजाने पर उसकी व्यवस्था करना मन का काम है। उदाहरणार्थ, बारह बजे जब घड़ी में घंटे बजने लगते हैं तब हमारे कानों को यह नहीं समझता कि कितने बजे है। ज्यों ज्यों घड़ी में ‘टन् टन्’ की एक एक आवाज होती जाती है त्यो त्यों हवा की लहरें हमारे कानों पर आकर टक्कर मारती है, मज्जातन्तु के द्वारा प्रत्येक आवाज का हमारे मन पर पहले अलग अलग संस्कार होता है और अन्त में इन सबों को जोड़कर हम यह निश्चय किया करते हैं कि इतने बजे है। पशुओं में भी ज्ञानेन्द्रियां होती हैं।

जब घड़ी की ‘टन् टन्’ आवाज होती है तब प्रत्येक ध्वनि का संस्कार उनके कानों के द्वारा मन तक पहुँच जाता है; परन्तु उनका मन इतना विकसित नहीं रहता कि वे उन सब संस्कारों को एकत्र करके यह निश्चित कर लें कि बारह बजे हैं। यही अर्थ शास्त्रीय परिभाषा में इस प्रकार कहा जाता है कि यद्यपि अनेक संस्कारों का पृथक् पृथक् ज्ञान पशुओं को हो जाता है, तथापि उस अनेकता की एकता का बोध उन्हें नहीं होता। भगवद्गीता [1] में कहा हैः- “इन्द्रियाणि परारायाहुः इन्द्रियेभ्यः परं मनः’’ अर्थात् इन्द्रियां (बाह्य) पदार्थों से श्रेष्ठ हैं और मन इन्द्रियों से भी श्रेष्ठ है। इसका भावार्थ भी वही है जो ऊपर लिखा गया है। पहले कह आये हैं कि, यदि मन स्थिर न हो तो आंखे खुली होने पर भी कुछ देख नहीं पड़ता और कान खुले होने पर भी कुछ सुन नहीं पड़ता। तात्पर्य यह है कि, इस देहरूपी कारखाने में ‘मन’ एक मुंशी (क्लर्क) है जिसके पास बाहर का सब माल ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा भेजा जाता है; और यही मुंशी(मन) उस माल की जांच किया करता है। अब इन बातों का विचार करना चाहिये कि, यह जांच किस प्रकार की जाती है, और जिसे हम अब तक सामान्यतः ‘मन’ कहते आये हैं, उसके भी और कौन से भेद किये जा सकते हैं, अथवा एक ही मन को भिन्न भिन्न अधिकार के अनुसार कौन कौन से भिन्न भिन्न नाम प्राप्त हो जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3.42

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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