गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
छठवाँ प्रकरण
इस विषय में, हमारे प्राचीन शास्त्रकारों का अंतिम निर्णय भी पश्चिमी आधिभौतिक-वादियों के सदृश ही है। वे इस बात को मानते हैं कि स्वस्थ और शांत अन्तःकरण से किसी भी बात का विचार करना चाहिये। परन्तु उन्हें यह बात मान्य नहीं कि, धर्म-अधर्म का निर्णय करने वाली बुद्धि अलग है और काला-गोरा पहचानने की बुद्धि अलग है। उन्होंने यह भी प्रतिपादन किया है कि, जिस प्रकार मन सुशिक्षित होगा उसी प्रकार वह भला या बुरा निर्णय कर सकेगा, अतएव मन को सुशिक्षित करने का प्रयत्न प्रत्येक को दृढ़ता से करना चाहिये। परन्तु वे इस बात को नहीं मानते कि सदसद्विवेचन-शक्ति, सामान्य बुद्धि से कोई भिन्न वस्तु या ईश्वरी प्रसाद है। प्राचीन समय में इस बात का निरीक्षण सूक्ष्म रीति से किया गया है कि, मनुष्य को ज्ञान किस प्रकार प्राप्त होता है और उसके मन का या बुद्धि का व्यापार किस तरह हुआ करता है। इसी निरीक्षण को ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार’ कहते है। क्षेत्र का अर्थ ‘शरीर और क्षेत्रज्ञ का अर्थ’ आत्मा है। यह क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार अध्यात्मविद्या की जड़ है। इस क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विद्या का ठीक ठीक ज्ञान हो जाने पर, सदसद्विवेक-शक्ति ही की कौन कहे, किसी भी मनोदेवता का अस्तित्व आत्मा के परे या स्वतंत्र नहीं माना जा सकता। ऐसी अवस्था में आधिदैवत पक्ष आप ही आप कमज़ोर हो जाता है। अतएव, अब यहाँ इस क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विद्या ही का विचार संक्षेप में किया जायगा। इस विवेचन से भगवद्गीता के बहुतेरे सिद्धांतों का सत्यार्थ भी पाठकों के ध्यान में अच्छी तरह आ जायेगा। यह कहा जा सकता है कि मनुष्य का शरीर (पिंड, क्षेत्र या देह) एक बहुत बड़ा कारखाना ही है। जैसे किसी कारखाने में पहले बाहर का माल भीतर लिया जाता है; फिर उस माल का चुनाव या व्यवस्था करके इस बात का निश्चय किया जाता है कि, कारखाने के लिये उपयोगी और निरूपयोगी पदार्थ कौन से है; और सब बाहर से लाये गये कच्चे माल से नई चीजें बनाते और उन्हें बाहर भेजते है; वैसे ही मनुष्य की देह में भी प्रतिक्षण अनेक व्यापार हुआ करते हैं। इस सृष्टि के पांचभौतिक पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये मनुष्य की इन्द्रियां ही प्रथम साधन हैं। इन इन्द्रियों के द्वारा सृष्टि के पदार्थों का यथार्थ अथवा मूल स्परूप नहीं जाना जा सकता। आधिभौतिक-वादियों का यह मत है कि, पदार्थों का यथार्थ स्वरूप वैसा ही है जैसा कि वह हमारी इन्द्रियों को प्रतीत होता है। परन्तु यदि कल किसी को कोई नूतन इन्द्रिय प्राप्त हो जाय, तो उसकी दृष्टि से सृष्टि के पदार्थों का गुण-धर्म जैसा आज है वैसा ही नहीं रहेगा। मनुष्य की इन्द्रियों में भी दो भेद हैं- एक कर्मेन्द्रियां और दूसरी ज्ञानेन्द्रियां। हाथ, पैर, वाणी, गुद और उपस्थ, ये पांच कर्मेन्द्रियां है। हम जो कुछ व्यवहार अपने शरीर से करते हैं वह सब इन्हीं कर्मेन्द्रियों के द्वारा होता है। नाक, आंखे, कान, जीभ और त्वचा, ये पांच ज्ञानेन्द्रियां है। आंखों से रूप, जिह्वा से रस, कानों से शब्द, नाक से गंध, और त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होता है। किसी भी बाह्य पदार्थ का जो हमें ज्ञान होता है वह एक सोने का टुकड़ा लीजिये। वह पीला देख पड़ता है, त्वचा को भारी मालूम होता है, ठोकने से लम्बा हो जाता है, इत्यादि जो गुण हमारी इंद्रियों को गोचर होते हैं उन्हीं को हम सोना कहते हैं और जब ये गुण बार बार एक ही पदार्थ में एक ही से दृग्गोचर होने लगते हैं तब हमारी दृष्टि से सोना एक स्वतंत्र पदार्थ बन जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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