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पहला प्रकरण
इनमें से पहली अर्थात् तात्विक दृष्टि से देखने पर श्री शंकराचार्य का कथन यह है कि:-
- मैं-तू यानि मनुष्य की आंख से दिखने वाला सारा जगत अर्थात सृष्टि के पदार्थों की अनेकता सत्य नहीं है। इन सब में एक ही शुद्ध और नित्य परब्रह्म भरा है और उसी की माया से मनुष्य की इंद्रियों को भिन्नता का भास हुआ करता है;
- मनुष्य का आत्मा भी मूलतः परब्रह्मा रूप ही है; और
- आत्मा और परब्रह्म की एकता का पूर्ण ज्ञान,अर्थात अनुभव सिद्ध पहचान,हुए बिना कोई भी मोक्ष नहीं पा सकता। इसी को‘अद्धैतवाद’कहते हैं। इस सिद्धांत का तात्पर्य यह है कि एक शुद्ध-बुद्ध नित्य-मुक्त परब्रह्म के सिवा दूसरी कोई भी स्वतंत्र और सत्य वस्तु नहीं है; दृष्टि गोचर भिन्नता मानवी दृष्टि का भ्रम,या माया की उपाधि से हाने वाला आभास है; माया कुछ सत्य या स्वतंत्र वस्तु नहीं है वह मिथ्या है। केवल तत्त्व ज्ञान का ही यदि विचार करना हो तो शंकर मत की,इससे अधिक चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु शंकर संप्रदाय इतने से ही पूरा नहीं हो जाता अद्धैत तत्त्व ज्ञान के साथ ही शांकर संप्रदाय का और भी एक सिद्धांत है जो आचार-दृष्टि से,पहले ही के समान,महत्त्व का है। उसका तात्पर्य यह है कि,यदयपि चित-शुद्धि के द्वारा ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता पाने के लिये स्मृति-ग्रंथों में कहे गये गृहस्थाश्रम के कर्म अत्यंत आवष्यक हैं, तथापि इन कर्मों का आचरण सदैव न करते रहना चाहिये; क्योंकि इन सब कर्मों का त्याग करके अंत में संन्यास लिये बिना मोक्ष नहीं मिल सकता।
इसका कारण यह है कि कर्म और ज्ञान,अंधकार और प्रकाश के समान,परस्पर-विरोधी हैं; इसलिये सब वासनाओं और कर्मों के छूटे बिना ब्रह्म ज्ञान की पूर्णता ही नहीं हो सकती इसी सिद्धांत को‘निवृति मार्ग’कहते हैं; और,सब कर्मों का संन्यास करके ज्ञान ही में निमग्र रहते हैं इसलिये‘संन्यास निष्ठा’ या ‘ज्ञान निष्ठा’भी कहते हैं। उपनिषद और ब्रह्म सूत्र पर शंकराचार्य का जो भाष्य है उसमें यह प्रतिपादन किया गया है कि उक्त ग्रंथों में केवल अद्धैत ज्ञान ही नहीं है, किंतु उनमें संन्यास मार्ग का, अर्थात् ‘शांकर सम्प्रदाय के उपर्युक्त दोनों भागों का भी, उपदेश हैं; और गीता पर जो शांकरभाष्य हैं उसमें कहा गया है कि गीता का तात्पर्य भी ऐसा ही हैं[1]। इसके प्रमाणस्वरूप में गीता के कुछ वाक्य भी दिये गये हैं जैसे "ज्ञानाग्रिः" सर्वकर्माणी भस्मसात्कुरुते"- अर्थात् ज्ञानरूपी अग्नि से ही सब कर्म जल कर भस्म हो जाते हैं[2] और "सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते" अर्थात सब कर्मों का अंत ज्ञान ही में होता है[3]।
सारांश यह है कि बौद्ध धर्म की हार होने पर प्राचीन वैदिक धर्म के जिस विशिष्ट मार्ग को श्रेष्ठ ठहरा कर श्रीशंकराचार्य ने स्थापित किया उसी के अनुकूल गीता का भी अर्थ है, गीता में ज्ञान और कर्म के समुच्चय के प्रतिपादन नहीं किया गया है जैसा कि पहले के टीकाकारों ने कहा है; किंतु उसमें शांकर सम्प्रदाय के इसी सिद्धांत का उपदेश दिया गया है कि कर्म ज्ञान प्राप्ति का गौण साधन है और सर्व कर्म संन्यासपूर्वक ज्ञान ही से मोक्ष की प्राप्ति होती है - यही बातें बतलाने के लिये शांकरभाष्य लिखा गया है।
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