गीता रहस्य -तिलक पृ. 13

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पहला प्रकरण

इनके पूर्व यदि एकआध और भी संन्यास विषयक टीका लिखी गई हो तो वह इस समय उपलब्ध नहीं है। इसलिये यही कहना पड़ता है कि गीता के प्रवृति विषयक स्वरूप को निकाल बाहर करके उसे निवृति मार्ग का सांप्रदायिक रूप शांकरभाष्‍य के द्वारा ही मिला है। श्रीशंकराचार्य के बाद इस संप्रदाय के अनुयायी मधुसूदन आदि जितने अनेक टीकाकार हो गये हैं उन्होंने इस विषय में बहुधा शंकराचार्य ही का अनुकरण किया है। इसके बाद एक यह अद्भुत विचार उत्पन्न हुआ कि, अद्वैत मत के मूलभूत महावाक्यों में से "तत्त्वमसि" नामक जो महावाक्य छांदोग्योपनिषद में है उसी का विवरण गीता के अठारह अध्यायों में किया गया है। परन्तु इस महावाक्य के पदो के क्रम को बदल कर, पहले 'त्वं' फिर 'तत्' और फिर 'असि' इन पदों को लेकर, इस नये क्रमानुसार प्रत्येक पद के लिये गीता के आरंभ से छः-छः अध्याय श्रीभगवान् ने निष्पक्षपात बुद्धि से बांट दिये हैं।

कई लोग समझते हैं कि गीता पर जो पैशाच भाष्य है वह किसी भी संप्रदाय का नहीं है बिलकुल स्वतंत्र है और हनुमानजी (पवनसुत) कृत है। परन्तु यथार्थ बात ऐसी नहीं है। भागवत के टीकाकार हनुमान पंडित ने ही इस भाष्य को बनाया है और यह संन्यास मार्ग का है। इसमें कई स्थानों पर शांकरभाष्‍य का ही अर्थ शब्दश: दिया गया है। प्रोफेसर मेक्समूलर की प्रकाशित 'प्राच्यधर्म पुस्तकमाला' में स्वर्गवासी काशीनाथ पंत तैलंग कृत भगवद्गीता का अंग्रेजी अनुवाद भी है। इसकी प्रस्तावना में लिखा है कि इस अनुवाद में श्रीशंकराचार्य और शंकर संप्रदायी टीकाकारों का, जितना हो सका उतना, अनुसरण किया गया है।

गीता और प्रस्थानत्रयी के अन्य ग्रंथों पर जब इस भाँति सांप्रदायिक भाष्य लिखने की रीति प्रचलित हो गई, तब दूसरे संप्रदाय भी बात का अनुकरण करने लगे। मायावाद, अद्वैत और संन्यास का प्रतिपादन करने वाले शांकरसम्‍प्रदाय के लगभग ढाई सौ वर्ष बाद, श्रीरामानुजाचार्य[1] ने विशिष्टाद्वैत संप्रदाय चलाया। अपने संप्रदाय को पुष्ट करने के लिये इन्‍होंने भी, शंकराचार्य ही के समान, प्रस्थानत्रयी पर (और गीता पर भी) स्वतंत्र भाष्य लिखे हैं। इस संप्रदाय का मत यह है कि शंकराचार्य का माया-मिथ्यात्व-वाद और अद्वैत सिद्धांत दोनों झूठ है; जीव, जगत और ईश्वर ये तीन तत्त्व यद्यपि भिन्न हैं, तथापि जीव चिदचिद्विशिष्ट ईश्वर एक ही है; और ईश्वर शरीर के इस सूक्ष्म चित-अचित से ही फिर स्थूलचित और स्थूल अचित अर्थात अनेक जीव और जगत की उत्पत्ति हुई है।

तत्त्व ज्ञान दृष्टि से रामानुजाचार्य का कथन है[2] कि यही मत जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है उपनिषदों, ब्रह्म सूत्रों और गीता में भी प्रतिपादित हुआ है। अब यदि कहा जाय कि इन्हीं के ग्रंथों के कारण भागवतधर्म में विशिष्टाद्वैत मत सम्मिलित हो गया है तो कुछ अतिशयोक्ति नहीं होगी; क्योंकि इनके पहले महाभारत और गीता में भागवतधर्म का जो वर्णन पाया जाता है उसमें केवल अद्वैत मत ही स्वीकार किया गया है। रामानुजाचार्य भागवतधर्म थे इसलिये यथार्थ में उनका ध्यान इस बात की ओर जाना चाहिये था कि गीता में प्रवृति विषयक कर्मयोग का प्रतिपादन किया गया है। परन्तु उनके समय में मूल भागवतधर्म का कर्मयोग प्रायः लुप्त हो गया था। और उसको, तत्त्वज्ञान की दृष्टि से विशिष्टाद्वैत-स्वरूप तथा आचरण की दृष्टि से मुख्यतः भक्ति का स्वरूप प्राप्त हो चुका था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जन्म संवत 1073
  2. गी. रामा. 2.12; 13.2

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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