गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
छठवाँ प्रकरण
आधिदैवतपक्ष और क्षेत्रक्षेत्रज्ञविचार । सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत् ।[1] [2] कर्म- अकर्म की परीक्षा करने का, आधिभौतिक मार्ग के अतिरिक्त, दूसरा पंथ आधिदैवतवादियों का है। इस पंथ के लोगों का यह कथन है कि, जब कोई मनुष्य कर्म-अकर्म का या कार्य-अकार्य का निर्णय करता है तब वह इस झगड़े में नहीं पड़ता कि किस से किसे कितना सुख अथवा दुःख होगा, अथवा उनमें से सुख का जोड़ अधिक होगा या दुःख का। वह आत्म- अनात्म-विचार की झंझट में भी नहीं पड़ता; और ये झगड़े बहुतेरों की तो समझ में भी नहीं आते। यह भी नहीं कहा जा सकता, कि प्रत्येक प्राणी प्रत्येक कर्म को केवल अपने सुख के लिये ही करता है। आधिभौतिकवादी कुछ भी कहें; परन्तु यदि इस बात का थोड़ा सा विचार किया जाये कि, धर्म-अधर्म का निर्णय करते समय मनुष्य के मन की स्थिति कैसी होती है, तो यह ध्यान में आ जायगा कि मन की स्वाभाविक और उदात मनोवृतियां-करुणा, दया, परोपकार आदि ही किसी काम को करने के लिये मनुष्य को एकाएक प्रवृत किया करती हैं। उदाहरणार्थ, जब कोई भिखारी देख पड़ता है तब मन में यह विचार आने के पहले ही कि ‘दान करने से जगत का अथवा अपने आत्मा का कितना हित होगा’ मनुष्य के हदय में करुणावृति जागृत हो जाती है और वह अपनी शक्ति के अनुसार उस याचक को कुछ दान कर देता है। इसी प्रकार जब बालक होता है तब माता उसे दूध पिलाते समय इस बात का कुछ भी विचार नहीं करती कि बालक को दूध पिलाने से लोगों का कितना हित होगा। अर्थात ये उदात्त मनोवृतियां ही कर्मयोगशास्त्र की यथार्थ नींव है। हमें किसी ने ये मनोवृतियां दी नहीं है; किन्तु ये निसर्गसिद्ध अर्थात स्वाभाविक, अथवा स्वयंभू, देवता ही है। जब न्यायाधीश न्यायासन पर बैठता है तब उसकी बुद्धि में न्यायदेवता की प्रेरणा हुआ करती है और वह उसी प्रेरणा के अनुसार न्याय किया करता है; परन्तु जब कोई न्यायाधीश इस प्रेरणा का अनादर करता है तभी उससे अन्याय हुआ करते हैं। न्यायदेवता के सदृश ही करुणा, दया, परोपकार, कृतज्ञता, कर्तव्य-प्रेम, धैर्य आदि सद्रुणों की जो स्वाभाविक मनोवृतियां हैं वे भी देवता है। प्रत्येक मनुष्य स्वभावतः इन देवताओं के शुद्ध स्वरूप से परिचित रहता है। परन्तु यदि लोभ, द्वेष, मत्सर आदि कारणों से वह इन देवताओं की प्रेरणा की परवाह न करे, तो अब देवता क्या करें? यह बात सच है कि कई बार इन देवताओं में भी विरोध उत्पन्न हो जाता है; और तब कोई कार्य करते समय हमें इस बात का संदेह हो जाता है कि किस देवता की प्रेरणा को अधिक बलवाती मानें। इस संदेह का निर्णय करने के लिये न्याय, करुणा आदि देवताओं के अतिरिक्त किसी दूसरे की सलाह लेना आवश्यकजान पड़ता है। परन्तु ऐसे अवसर पर अध्यात्म विचार अथवा सुख-दुःख की न्यूनाधिकता के झगड़े में न पड़कर, यदि हम अपने मनोदेव की गवाही लें, तो वह एकदम इस बात का निर्णय कर देता है कि इन दोनों में से कौन सा मार्ग श्रेयस्कर है। यही कारण है कि उक्त सब देवताओं में मनोदेव श्रेष्ठ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ “वही बोलना चाहिये जो सत्य से पूत अर्थात् शुद्ध किया गया है, और वही आचरण करना चाहिये जो मन को शुद्ध मालूम हो।’’
- ↑ मनु. 6. 46
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