गीता रहस्य -तिलक पृ. 113

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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छठवाँ प्रकरण

‘मनोदेवता’ शब्द में इच्छा, क्रोध, लोभ आदि सभी मनोविकारों को शामिल नहीं करना चाहिये; किन्तु इस शब्द से मन की वह ईश्‍वरदत्त और स्वाभाविक शक्ति ही अभीष्ट है कि जिसकी सहायता से भले-बुरे का निर्णय किया जाता है। इसी शक्ति का एक बड़ा भारी नाम 'सदसद्विवेक-बुद्धि’[1] है। यदि, किसी संदेह-प्रस्त अवसर पर, मनुष्य स्वस्थ अंतःकरण से और शांति के साथ विचार करे तो यह सदसद्विवेक- बुद्धि कभी उसको धोखा नहीं देगी। इतना ही नहीं; किंतु ऐसे मौकों पर हम दूसरों से यही कहा करते हैं कि ‘तू अपने मन से पूछ’। इस बड़े देवता के पास एक फेहरिस्त हमेशा मौजूद रहती है। उसमें यह लिखा होता है कि किस सद्गुण को, किस समय, कितना महत्त्व दिया जाना चाहिये। यह मनोदेवता, समय समय पर, इसी फेहरिस्त के अनुसार अपना निर्णय प्रगट किया करता है।

मान लीजिये कि किसी समय आत्म-रक्षा और अहिंसा में विरोध उत्पन्न हुआ और यह शंका उपस्थित हुई, कि दुर्भिक्ष के समय अभत्य भक्षण करना चाहिये या नही? तब इस संशय को दूर करने के लिये यदि हम शतचित से इस मनोदेवता की मिन्नत करें, तो उसका यही निर्णय प्रगट होगा कि ‘अभक्ष्य भक्षण करो’। इसी प्रकार यदि कभी स्वार्थ और परार्थ अथवा परोपकार के बीच विरोध हो जाय, तो उसका निर्णय भी इस मनोदेवता को मना कर करना चाहिये। मनोदेवता के घर की, धर्म-अधर्म के न्यूनाधिक भाव की, यह फेहरिस्त एक ग्रंथकार को शांतिपूर्वक विचार करने से उपलब्ध हुई है जिसे उसने अपने ग्रंथ में प्रकाशित किया है[2] इस फेहरिस्त में नम्रतापूर्वक पूज्य भाव को पहला अर्थात् अत्युच्च स्थान दिया गया है; और उसके बाद करुणा, कृतज्ञता, उदारता, वात्सल्य आदि भावों को क्रमश: नीचे की श्रेणियों में शामिल किया है।

इस ग्रंथकार का मत है कि, जब ऊपर और नीचे की श्रेणियों के सद्गुणों में विरोध उत्पन्न हो तब ऊपर ऊपर की श्रेणियों के सद्गुणों को ही अधिक मान देना चाहिये। उसके मत के अनुसार कार्य-अकार्य का अथवा धर्म-अधर्म का निर्णय करने के लिये इसकी अपेक्षा और कोई उचित मार्ग नहीं है। इसका कारण यह है कि, यद्यपि हम अत्यंत दूरदृष्टि से यह निश्चितकर लें कि ‘अधिकांश लोगों का अधिक सुख’ किसमें है, तथापि इस न्यूनाधिक भाव में यह कहने की सत्‍ता या अधिकार नहीं है कि ‘जिस बात में अधिकांश लोगों का सुख हो वही तू कर;’ इस लिये अंत में इस प्रश्‍न का निर्णय ही नहीं होता कि ‘जिसमें अधिकांश लोगों का हित है, वह बात मै क्यों करूं?’ और सारा झगड़ा ज्यों का त्यों बना रहता है। राजा से बिना अधिकार प्राप्त किये ही जब कोई न्यायाधीश न्याय करता है तब उसके निर्णय की जो दशा होती है, ठीक वही दशा उस कार्य-अकार्य के निर्णय की भी होती है, जो दूरदृष्टिपूर्वक सुख-दुःखों का विचार करके किया जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस सदसद्विवेक- बुद्धि को ही अंग्रेजी में Conscience कहते है; और आधिदैवत पक्ष Intuitionist school कहलाता है।
  2. इस ग्रंथकार का नाम James Martineau(जेम्स मार्टिनो) है। इसने यह फेहरिस्त अपने Types of Ethical Theory (Vol. 2.p.266.3d ed.) नामक ग्रंथ में दी है। मार्टिनों अपने पंथ कोIdio-psychological कहता है। परन्तु हम उसे आधिदैवतपक्ष ही में शामिल करते हैं।

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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